रविवार, 30 दिसंबर 2012

मानव गरिमा की मौत




दामिनी की मौत ने सबको विचलित कर दिया ,लेकिन उसने हम सब के सामने कुछ गंभीर प्रश्न भी खड़े कर दिए.कल कैथल के जाट ग्राउंड से जवाहर पार्क तक एक मौन  या यूं कहें की रोष जुलूस निकला जिसमें तमाम  संगठनों और शहर के सोचने-समझने वाले लोग शामिल हुए. आज तितरम गाँव में और तितरम मोड़ पर एक सभा हुई और एक परचा बांटा गया .पर्चा प्रस्तुत है आपके लिए. सोचें, बांटे और समाज को बदलने का प्रयास करें...

इस समाज को लड़कियों के रहने लायक बनाओ

एक लडकी मर गयी..!
तो क्या हुआ...?
रोज़ लड़कियां मरती हैं. ..!!
नहीं, हम उस लडकी की बात कर रहें हैं जो 16 दिसम्बर की रात को हैवानियत का शिकार हुयी. यह वह लड़की थी जिसे देश की राजधानी दिल्ली में छ: वहशी लोगों के द्वारा रौंद डाला गया.
आप सब पिछले 12-14 दिनों से सुन पढ़ रहे होंगे कि एक लड़की पहले दिल्ली और फिर सिंगापुर के एक अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रही थी और आखिरकार 28-29 दिसम्बर की रात को उसने दम तोड़ दिया. मीडिया के माध्यम से हम इस लड़की को दामिनी के नाम से जानते है. जो कुछ दामिनी ने झेला उसके समक्ष बलात्कार शब्द बहुत छोटा पड़ जाता है.
  दामिनी पहली लड़की नहीं थी, और दामिनी आखिरी लड़की भी नहीं है. न जाने
कितनी दामिनियाँ रोज़ लुटती-पिटती दम तोड़ देती हैं.
 पिछले कुछ अरसे से अख़बारों में रेप और गैंग रेप की घटनाएँ हम लगातार पढ़ रहे हैं. लोगों में आक्रोश है, गुस्सा है, शर्म है...प्रशासन और पुलिस से शिकायत है.
   लेकिन क्या यह सिर्फ क़ानून व्यवस्था का मामला है? क्या सिर्फ सख्त कानून भर बना देने से ये समस्या हल हो जाएगी?
   क्या हमारे सामाजिक ढाँचे का इसमें कोई दोष नहीं है?
   क्या बचपन से लड़की-लड़के में भेदभाव इसका कारण नहीं है?
   क्या औरत को एक सामान्य इंसान और नागरिक ना समझना इसका कारण नहीं है?
   क्या पुरुषवादी मानसिकता और व्यवहार इसके कारण नहीं हैं?
   क्या परम्पराएं इसका कारण नहीं हैं?
   क्या बिगड़ता लिंगानुपात इसका कारण नहीं?
   क्या बढती बेरोज़गारी और नौजवानों का बढ़ता उद्देश्यहीन जीवन इसका कारण नहीं?
   क्या फूहड़ फ़िल्में और गाने इसका कारण नहीं?
 अगर हम इन सवालों के उत्तर नहीं खोजेंगे तो दामिनियों की अस्मत लुटती रहेगी...दामिनियाँ मरती रहेंगीं.अब वक़्त आ गया है कि हम इन सवालों पर गौर करें क्योंकि दामिनियाँ हमारे घर में ही हैं,हमारे पड़ोस में भी हैं..
 आइये, इस समाज को दामिनियों के रहने लायक बनाएं, ताकि इसे एक सभ्य और सुन्दर समाज कहा जा सके.  
      संभव ( SOCIAL ACTION FOR MOBILISATION & BETTERMENT OF HUMAN THROUGH AUDIO-VISUALS) द्वारा जारी

फोन:9813272061, 9729486502, 9416203045


मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

सुनिए फरहत साहब की आवाज़


फरहत शहजाद की शायरी और मेहंदी साहब की मौसिकी दोनों के मिलन ने अदब और तहजीब को एक अलग ही ऊंचाई तक पहुंचाया .पेश है आपके लिए चाँद गज़लें...


                                  तुम्हारे साथ भी तनहा हूँ....
              {सुनने के लिए विडिओ के बीच में बने तीर के निशाँ को क्लिक करें}

रविवार, 16 दिसंबर 2012

कैथल की सरज़मीन का एक सिलसिला



                  उजाला इसकदर बेनूर क्यों है   
           किताबें ज़िन्दगी से दूर क्यों हैं

ये कहना है उर्दू के अज़ीम शायर जनाब फरहत शहजाद का. फरहत साहब जो समकालीन उर्दू शायरी का एक ऐसा नाम है जिसकी शायरी को भारतीय उपमहाद्वीप के सभी फनकारों ने अपनी आवाज़ दी है. इनकी पहली ग़ज़ल मेहंदी हसन साहब ने गाई और उनकी ही गज़ल मेहंदी साहब की आखिरी ग़ज़ल बनी. यही फरहत साहब अपनी जड़ों को तलाशते कल कैथल में थे. इनके वालिद तकसीम के समय पाकिस्तान के डेरा गाजी खान चले गए थे जहां फरहत साहब का जन्म हुआ.
     फरहत साहब यूं तो पिछले 35 सालों से अमरीका में हैं, लेकिन उनकी रूह यहीं गंगा-सतलुज और सिन्धु के मैदानों में मंडराती रहती है. साल के पांच-छह महीने वे यहीं गुजारते हैं. अपने पुरखों की सरज़मीन को देखने, उसे सिजदा करने, उसे छूने और महसूस करने की चाह उन्हें कैथल ले आयी और कल वे अपने अज़ीज़ दोस्तों जनाब दिनेश यादव और तरुण वर्मा के साथ अपने वालिद और अपनी अम्मी के घर गए . वक़्त ने हांलाकि मंज़र बदल दिया है, हवेली के आसपास बाज़ार उग आया है, फिर भी फरहत साहब को वहा की गलियों, वहाँ की हवा, पेड़ों, घरों, इधर-उधर डोलते पिल्लों और यहाँ तक की नालियों को देख कर महसूस हुआ जैसे वो अपने घर, अपने अब्बा के घर आये हैं ....अपनी अम्मी के घर.........आये हैं .....
   वे उस मस्जिद में भी गए जहां कभी उनके अब्बा जाया करते थे. आसपास के बाशिंदों से बात कर जैसे उनकी रूह को सुकून सा मिला.
   शाम को शहर के बाशिंदों ने उनका इस्तकबाल किया. कोयल काम्प्लेक्स में तकसीम(विभाजन) के समय उजड़ कर कैथल आये लोग उनकी एक झलक लेना चाहते थे....प्राध्यापक, दुकानदार, सरकारी मुलाजिम भी जिनके परिवार उधर से आये थे और जिन्हें अपने ज़मीन की खुशबू लेकर आये फरहत साहब को सिजदा करना था, वहां मौजूद थे.
       आये हुए लोगों की मुहब्बत फरहत साहब की आँखों को नम कर गयी. उन्होंने कहा की इतिहास में जो कुछ घट चूका है उसे हम बदल नहीं सकते....लेकिन हम आने वाले समय को बेहतर बना सकते हैं. दोनों मुल्कों का माजी (अतीत) एक रहा है, दोनों की आबो-हवा एक है, तहजीब एक है.....और लोग एक हैं जो अमन और शान्ति चाहते हैं. उन्होंने कहा की कुछ ही लोग हैं जो बुरा चाहते हैं, बाकी अवाम तो हमेशा बेहतरी चाहती है. हमें अवाम पर भरोसा करना चाहिए. दोनों मुल्कों के अमनपरस्त साहित्यकारों,  फिल्मकारों, फनकारों और पढ़े-लिखे लोगों की सांझी कोशिश से ही मुहब्बत को कायम रखा जा सकता है.
    
       कार्यक्रम के दौरान गंगा-जमुनी संस्कृति की बेहतरीन मिसाल देखने को मिली. मुल्तान से आकर बसे अजीम शायर राणा प्रताव गंनौरी साहब ने मुल्तानी में नज्में पढ़ीं. वो अभी भी अपनी माँ-बोली को जिंदा रखे हुए हैं. तो दूसरी तरफ फरहत साहब ने भी ठेठ हरियाणवी में किस्से सुनाये. यहाँ डेरा गाजी खान के दो बेटे भी पहली बार आपस में मिले, एक फरहत साहब तो दूसरे कैथल के जानेमाने साहित्यकार डा. अमृत लाल मदान. मदान साहब और उनकी पत्नी का परिवार विभाजन के समय डेरा गाजी खान से यहाँ आकर बसा था.
    फरहत साहब ने बताया की उनकी पत्नी हिन्दुस्तान से हैं. और वे जल्दी ही देवनागरी पढ़ना और लिखना सीखने जा रहें हैं ताकि वे हिंदी रचनाकारों को भी पढ़ सकें. फरहत साहब न जाने कितनों की ख्वाहिशें बन कर यहाँ आये थे. उनके मार्फ़त न जाने कितने लोगों ने अपनी ज़मीन को सिजदा किया. न जाने वे कितनों के दिलों में अपनी ज़मीन को बस एक बार देखने की ख्वाहिशें जगा गए. उनके अब्बा ने उनसे कहा था, फरहत, मुझे हज पर भले ही न ले जाना, पर एक बार कैथल ज़रूर दिखा देना. अब्बा की ख्वाहिश तो सियासी दांव-पेंचों मे उलझ कर रह गयीं पर फरहत साहब को ज़रूर सुकून मिला होगा. और हम सब उन्हें देख कर कृतार्थ हुए.......