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सोमवार, 14 जनवरी 2013

Goa Folk Festival

                         गोवा लोक संस्कृति महोत्सव
                              Goa Folk Festival
                               (21 जनवरी,2013)
                             
                                     




























"संभव" और मल्टी-कल्चरल आर्ट सेंटर, कुरुक्षेत्र के तत्वावधान में आल्योजित "गोवा लोक संस्कृति महोत्सव" में आप सभी आमंत्रित हैं...आशा है आप सभी कार्यक्रम का प्रचार करेंगे और अपने मित्रों और परिवार के साथ   इस कार्यक्रम को सफल बनायेंगे....

स्थान: आर.के.एस.डी.कालेज
समय : शाम सुहानी ( समय जल्दी ही पक्का हो जायेगा)  

रविवार, 16 दिसंबर 2012

कैथल की सरज़मीन का एक सिलसिला



                  उजाला इसकदर बेनूर क्यों है   
           किताबें ज़िन्दगी से दूर क्यों हैं

ये कहना है उर्दू के अज़ीम शायर जनाब फरहत शहजाद का. फरहत साहब जो समकालीन उर्दू शायरी का एक ऐसा नाम है जिसकी शायरी को भारतीय उपमहाद्वीप के सभी फनकारों ने अपनी आवाज़ दी है. इनकी पहली ग़ज़ल मेहंदी हसन साहब ने गाई और उनकी ही गज़ल मेहंदी साहब की आखिरी ग़ज़ल बनी. यही फरहत साहब अपनी जड़ों को तलाशते कल कैथल में थे. इनके वालिद तकसीम के समय पाकिस्तान के डेरा गाजी खान चले गए थे जहां फरहत साहब का जन्म हुआ.
     फरहत साहब यूं तो पिछले 35 सालों से अमरीका में हैं, लेकिन उनकी रूह यहीं गंगा-सतलुज और सिन्धु के मैदानों में मंडराती रहती है. साल के पांच-छह महीने वे यहीं गुजारते हैं. अपने पुरखों की सरज़मीन को देखने, उसे सिजदा करने, उसे छूने और महसूस करने की चाह उन्हें कैथल ले आयी और कल वे अपने अज़ीज़ दोस्तों जनाब दिनेश यादव और तरुण वर्मा के साथ अपने वालिद और अपनी अम्मी के घर गए . वक़्त ने हांलाकि मंज़र बदल दिया है, हवेली के आसपास बाज़ार उग आया है, फिर भी फरहत साहब को वहा की गलियों, वहाँ की हवा, पेड़ों, घरों, इधर-उधर डोलते पिल्लों और यहाँ तक की नालियों को देख कर महसूस हुआ जैसे वो अपने घर, अपने अब्बा के घर आये हैं ....अपनी अम्मी के घर.........आये हैं .....
   वे उस मस्जिद में भी गए जहां कभी उनके अब्बा जाया करते थे. आसपास के बाशिंदों से बात कर जैसे उनकी रूह को सुकून सा मिला.
   शाम को शहर के बाशिंदों ने उनका इस्तकबाल किया. कोयल काम्प्लेक्स में तकसीम(विभाजन) के समय उजड़ कर कैथल आये लोग उनकी एक झलक लेना चाहते थे....प्राध्यापक, दुकानदार, सरकारी मुलाजिम भी जिनके परिवार उधर से आये थे और जिन्हें अपने ज़मीन की खुशबू लेकर आये फरहत साहब को सिजदा करना था, वहां मौजूद थे.
       आये हुए लोगों की मुहब्बत फरहत साहब की आँखों को नम कर गयी. उन्होंने कहा की इतिहास में जो कुछ घट चूका है उसे हम बदल नहीं सकते....लेकिन हम आने वाले समय को बेहतर बना सकते हैं. दोनों मुल्कों का माजी (अतीत) एक रहा है, दोनों की आबो-हवा एक है, तहजीब एक है.....और लोग एक हैं जो अमन और शान्ति चाहते हैं. उन्होंने कहा की कुछ ही लोग हैं जो बुरा चाहते हैं, बाकी अवाम तो हमेशा बेहतरी चाहती है. हमें अवाम पर भरोसा करना चाहिए. दोनों मुल्कों के अमनपरस्त साहित्यकारों,  फिल्मकारों, फनकारों और पढ़े-लिखे लोगों की सांझी कोशिश से ही मुहब्बत को कायम रखा जा सकता है.
    
       कार्यक्रम के दौरान गंगा-जमुनी संस्कृति की बेहतरीन मिसाल देखने को मिली. मुल्तान से आकर बसे अजीम शायर राणा प्रताव गंनौरी साहब ने मुल्तानी में नज्में पढ़ीं. वो अभी भी अपनी माँ-बोली को जिंदा रखे हुए हैं. तो दूसरी तरफ फरहत साहब ने भी ठेठ हरियाणवी में किस्से सुनाये. यहाँ डेरा गाजी खान के दो बेटे भी पहली बार आपस में मिले, एक फरहत साहब तो दूसरे कैथल के जानेमाने साहित्यकार डा. अमृत लाल मदान. मदान साहब और उनकी पत्नी का परिवार विभाजन के समय डेरा गाजी खान से यहाँ आकर बसा था.
    फरहत साहब ने बताया की उनकी पत्नी हिन्दुस्तान से हैं. और वे जल्दी ही देवनागरी पढ़ना और लिखना सीखने जा रहें हैं ताकि वे हिंदी रचनाकारों को भी पढ़ सकें. फरहत साहब न जाने कितनों की ख्वाहिशें बन कर यहाँ आये थे. उनके मार्फ़त न जाने कितने लोगों ने अपनी ज़मीन को सिजदा किया. न जाने वे कितनों के दिलों में अपनी ज़मीन को बस एक बार देखने की ख्वाहिशें जगा गए. उनके अब्बा ने उनसे कहा था, फरहत, मुझे हज पर भले ही न ले जाना, पर एक बार कैथल ज़रूर दिखा देना. अब्बा की ख्वाहिश तो सियासी दांव-पेंचों मे उलझ कर रह गयीं पर फरहत साहब को ज़रूर सुकून मिला होगा. और हम सब उन्हें देख कर कृतार्थ हुए.......


         

गुरुवार, 1 नवंबर 2012


                              सरस मेला ....कैथल की कहानी और  "सम्भव" की प्रदर्शन

  ज़िंदगी एक मेला है  और मेला ज़िन्दगी .मेलों के बिना ज़िंदगी अधूरी है और मेले ज़िंदगी की रवानी को बनाए रखते हैं.....सदियों से चले आ रहें हैं मेले. ज़िंदगी की जद्दोजहद के बीच मेल-मिलाप, घूमने - फिरने, खाने - पीने ,रौनक देखने, कला के हुनर देखने, खरीद-फरोख्त , किसिम-किसिम के करतब देखने और न जाने क्या-क्या के लिए लगते रहें हैं मेले...
       आजकल कैथल में लगा "सरस मेला" भी लोगों को अपनी ओर खींच रहा है. जगह-जगह से आये शिल्पकार और उनके बेहतरीन सामानों को खरीदने वालों की जहां भीड़ लगी है तो वहीं  शाम को अलग -अलग सांस्कृतिक कार्यक्रम एक अलग ही समां बांधते हैं. लेकिन इन सबके बीच जो जगह सबसे ज़्यादा लोगों को खींच रही है वह है 'संभव" सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था द्वारा लगाई गई प्रदर्शनी- "मैं कैथल हूँ ". कैथल के पौराणिक महत्त्व के स्रोतों को बताती कैथल की कहानी ले जाती है हमें सुदूर अतीत में ..... हड़प्पा काल की बस्ती में हुई खुदाई में मिले  पुरातात्विक स्रोतों को प्रस्तुत करती,  कलायत के प्रतिहार राजाओं के भव्य मंदिर को दर्शाती , रजिया के मज़ार की सैर कराती  यह प्रदर्शनी अट्ठारह सौ सत्तावन में कैथल शहर और आस-पास के गाँवों में धधकी ज्वाला का बयान करते स्वतंत्रता आन्दोलन में कैथल की भूमिका और कैथल में गांधी जी के आगमन का ज़िक्र करती है.. यह विभाजन की पीड़ा को भी बताती है...आज़ादी के बाद यहाँ हुए विकास और विडंबनाओं की चर्चा करते हुए अतीत के सांझेपन को बरकरार रखने की  अपील के साथ यह प्रदर्शनी  सामाजिक बदलाव के लिए सबको अपनी भूमिका निभाने का आह्वान करती है ...  
      प्रस्तुत है प्रदर्शनी और मेले की एक झलक..

अपने शहर..अपने अतीत में खुद को तलाशते लोग 

         
             
        प्रदर्शनी में लोग--कैथल की विरासत को देखते और महसूस करते...        



सांझी विरासत....
दो पीढियां ....कैथल को समझने की कोशिश में....
नन्हीं बेतिया...इतिहास को समझने की कोशिश में.....





अरे, ये क्या है??

मेले में........जादू........


















यह मात्र झलक थी..... हम मिलते रहेंगे.....मेले के और भी रंगों के साथ.....

बुधवार, 19 सितंबर 2012

बाबा तोतापुरी : कैथल का अद्वैत दार्शनिक और रामकृष्ण परमहंस का गुरु,

 
      

हरियाणा और  कैथल  शिक्षा, ज्ञान और दर्शन का विशेष केन्द्र रहें हैं. लोगों को यह यकीन नहीं होगा कि कैथल के बाबा लदाना गाँव में उन्नीसवीं  सदी में एक ऐसा दार्शनिक पैदा हुआ जिसके बारे में  बीसवीं सदी में  विश्व  के महानतम  दार्शिनिकों  में से एक , रोमा रोलां  ने बड़े सम्मान के साथ अपने विचार रखे . यह दार्शनिक थे बाबा लदाना के तोतपुरी . वे अद्वैत  दर्शन के महानिर्वाणी अखाड़े के  नागा पंथ से ताल्लुक रखते थे. उन्होंने लदाना के ही बाबा राजपुरी मठ से शिक्षा पाई थी. 1858 में वे डेरा के मुखिया बने .  भौतिक जगत और माया  को नकार कर वे अंतिम सत्य  की खोज में लगे थे.  अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशते उन्होंने वस्त्र भी त्याग दिए जिससे जन के बीच वे नंगता बाबा के नाम से जाने गए. 1861 में सत्य की खोज में  यायावरी करते वे मठ से  निकल पड़े . शास्त्रार्थ करते वे कलकत्ता पहुंचे जहां 1864 में  उनकी  मुलाक़ात सत्य को तलाशते एक और  बेचैन संत  से हुई . वे थे  स्वामी विवेकानंद  के गुरु राम कृष्ण परमहंस .  रोमा रोलां ने कहा है कि  इस मुलाकात ने राम कृष्ण की दार्शनिक सोच को आकार देने में और  जीवन की दिशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की . बाबा तोतापुरी ने  काली की भक्ति में  आसक्त राम कृष्ण को अद्वैत दर्शन के अपने प्रश्नों से झिंझोड़ कर रख दिया. साकार ब्रह्म और काली की भक्ति से वे ध्यान नही हटा पा रहे थे . बाबा तोतापुरी ने परमहंस को द्वैत का रास्ता छोड़ अद्वैत का रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित किया. आत्मसाधना और चिंतन के बाद  उन्होंने अद्वैत दर्शन को अपनाया . वे तोतापुरी के शिष्य बन गए. आध्यात्मिक इतिहास में गुरु और शिष्य की यह मुलाक़ात  अनोखी मानी जाती है क्योंकि जहां शिष्य ने गुरु से अद्वैत दर्शन सीखा तो  गुरु ने अपने  शिष्य से अटूट भक्ति सीखी. दोनों ने परस्पर एक दूसरे से सीखा तो एक दूसरे को दिया भी.
    इस घटना से यह तो साबित होता ही है कि कैथल शहर और इसके आसपास का इलाका एक समय में ज्ञान  और दर्शन के क्षेत्र में बेहद उन्नत था. और यह सब तभी संभव हो पाया क्योंकि कैथल सदियों से  शिक्षा , ज्ञान , दर्शन और संस्कृति का केन्द्र रहा है. यही हमारी धरोहर और विरासत है. हमें इसे जानना है और समझना है  और इसे  संजो कर रखना है.

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कितने कैथल ?

कैथल सिर्फ किसी एक भौगोलिक इकाई का नाम नहीं है. दुनिया में जगह-जगह कैथल हैं और हर कैथल में जगह-जगह अलग दुनिया है. हर कैथल की पीड़ा सांझी है. हर पीड़ा का कैथल साँझा है. सियासतें, घटनाएँ और तारीख लोगों को उजाड़ कर भले ही एक जगह से दूसरी जगह पर धकेल दें पर लोगों की यादों, तहजीब, खान-पान, रवायतों और बोलियों को क्या कभी वे बदल पाएं हैं? कागज पर नक्शा खींच कर सरहद के ‘इधर’ और ‘उधर’ पहुंचा दिए गए लोग जिस मिट्टी में पले-बढे हों और वहीं-कहीं तोतली जबान को बोलते हुए भाषा सीखी हो, जहाँ का गीत-संगीत, मुहावरे, गालियाँ और..और भी न जाने क्या-क्या अपने खून में रचाया बसाया हो उस मिट्टी की महक को भला कौन सियासत मिटा सकी है, मिटा पायेगी? सपनो, खुशियों और स्यापों के साये मजबूती से उनका दामन पकड़े साथ-साथ चलते हैं ताउम्र.... तकसीम के समय गहरी पीड़ा, आंसूओं और छलनी हो चुके दिलों के साथ लाखों लोग इधर से उधर या उधर से इधर भेज दिए गए लेकिन उनकी माँ बोली उनके साथ बनी रही. अपनी जुबान, तहजीब और अपनी मिट्टी की यादों को संजो कर रखने वाले लोग सरहद के दोनों ओर हैं. ऐसे ही लोगों से तहजीब बची रहती ओर बिखरती जाती है ओर आने वाली पीढियां उसे थामे रहती हैं. तकसीम के वक्त हरियाणा से पाकिस्तान गए लोंगो ने आज भी अपनी मा.बोली हरियाणवी को जिन्दा रखा है और इधर राणा प्रताप गन्नौरी जैसी शख्सियतों ने अपनी माँ-बोली मुलतानी में ढेरों नज्में लिख कर अपनी मिट्टी की महक को जिंदा रखा है. सांझी विरासत की ऐसी मिसालों से ही अमन की मशालें रोशन हैं. देखिये ये दोनों वीडियो...

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

सिन्धु सभ्यता-गांव बालू

दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक--सिंधु सभ्यता की एक बस्ती कैथल में भी थी .कैथल  के बालू गाँव में खुदाई में निकले बर्तनों के अवशेष