रविवार, 30 दिसंबर 2012

मानव गरिमा की मौत




दामिनी की मौत ने सबको विचलित कर दिया ,लेकिन उसने हम सब के सामने कुछ गंभीर प्रश्न भी खड़े कर दिए.कल कैथल के जाट ग्राउंड से जवाहर पार्क तक एक मौन  या यूं कहें की रोष जुलूस निकला जिसमें तमाम  संगठनों और शहर के सोचने-समझने वाले लोग शामिल हुए. आज तितरम गाँव में और तितरम मोड़ पर एक सभा हुई और एक परचा बांटा गया .पर्चा प्रस्तुत है आपके लिए. सोचें, बांटे और समाज को बदलने का प्रयास करें...

इस समाज को लड़कियों के रहने लायक बनाओ

एक लडकी मर गयी..!
तो क्या हुआ...?
रोज़ लड़कियां मरती हैं. ..!!
नहीं, हम उस लडकी की बात कर रहें हैं जो 16 दिसम्बर की रात को हैवानियत का शिकार हुयी. यह वह लड़की थी जिसे देश की राजधानी दिल्ली में छ: वहशी लोगों के द्वारा रौंद डाला गया.
आप सब पिछले 12-14 दिनों से सुन पढ़ रहे होंगे कि एक लड़की पहले दिल्ली और फिर सिंगापुर के एक अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रही थी और आखिरकार 28-29 दिसम्बर की रात को उसने दम तोड़ दिया. मीडिया के माध्यम से हम इस लड़की को दामिनी के नाम से जानते है. जो कुछ दामिनी ने झेला उसके समक्ष बलात्कार शब्द बहुत छोटा पड़ जाता है.
  दामिनी पहली लड़की नहीं थी, और दामिनी आखिरी लड़की भी नहीं है. न जाने
कितनी दामिनियाँ रोज़ लुटती-पिटती दम तोड़ देती हैं.
 पिछले कुछ अरसे से अख़बारों में रेप और गैंग रेप की घटनाएँ हम लगातार पढ़ रहे हैं. लोगों में आक्रोश है, गुस्सा है, शर्म है...प्रशासन और पुलिस से शिकायत है.
   लेकिन क्या यह सिर्फ क़ानून व्यवस्था का मामला है? क्या सिर्फ सख्त कानून भर बना देने से ये समस्या हल हो जाएगी?
   क्या हमारे सामाजिक ढाँचे का इसमें कोई दोष नहीं है?
   क्या बचपन से लड़की-लड़के में भेदभाव इसका कारण नहीं है?
   क्या औरत को एक सामान्य इंसान और नागरिक ना समझना इसका कारण नहीं है?
   क्या पुरुषवादी मानसिकता और व्यवहार इसके कारण नहीं हैं?
   क्या परम्पराएं इसका कारण नहीं हैं?
   क्या बिगड़ता लिंगानुपात इसका कारण नहीं?
   क्या बढती बेरोज़गारी और नौजवानों का बढ़ता उद्देश्यहीन जीवन इसका कारण नहीं?
   क्या फूहड़ फ़िल्में और गाने इसका कारण नहीं?
 अगर हम इन सवालों के उत्तर नहीं खोजेंगे तो दामिनियों की अस्मत लुटती रहेगी...दामिनियाँ मरती रहेंगीं.अब वक़्त आ गया है कि हम इन सवालों पर गौर करें क्योंकि दामिनियाँ हमारे घर में ही हैं,हमारे पड़ोस में भी हैं..
 आइये, इस समाज को दामिनियों के रहने लायक बनाएं, ताकि इसे एक सभ्य और सुन्दर समाज कहा जा सके.  
      संभव ( SOCIAL ACTION FOR MOBILISATION & BETTERMENT OF HUMAN THROUGH AUDIO-VISUALS) द्वारा जारी

फोन:9813272061, 9729486502, 9416203045


मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

सुनिए फरहत साहब की आवाज़


फरहत शहजाद की शायरी और मेहंदी साहब की मौसिकी दोनों के मिलन ने अदब और तहजीब को एक अलग ही ऊंचाई तक पहुंचाया .पेश है आपके लिए चाँद गज़लें...


                                  तुम्हारे साथ भी तनहा हूँ....
              {सुनने के लिए विडिओ के बीच में बने तीर के निशाँ को क्लिक करें}

रविवार, 16 दिसंबर 2012

कैथल की सरज़मीन का एक सिलसिला



                  उजाला इसकदर बेनूर क्यों है   
           किताबें ज़िन्दगी से दूर क्यों हैं

ये कहना है उर्दू के अज़ीम शायर जनाब फरहत शहजाद का. फरहत साहब जो समकालीन उर्दू शायरी का एक ऐसा नाम है जिसकी शायरी को भारतीय उपमहाद्वीप के सभी फनकारों ने अपनी आवाज़ दी है. इनकी पहली ग़ज़ल मेहंदी हसन साहब ने गाई और उनकी ही गज़ल मेहंदी साहब की आखिरी ग़ज़ल बनी. यही फरहत साहब अपनी जड़ों को तलाशते कल कैथल में थे. इनके वालिद तकसीम के समय पाकिस्तान के डेरा गाजी खान चले गए थे जहां फरहत साहब का जन्म हुआ.
     फरहत साहब यूं तो पिछले 35 सालों से अमरीका में हैं, लेकिन उनकी रूह यहीं गंगा-सतलुज और सिन्धु के मैदानों में मंडराती रहती है. साल के पांच-छह महीने वे यहीं गुजारते हैं. अपने पुरखों की सरज़मीन को देखने, उसे सिजदा करने, उसे छूने और महसूस करने की चाह उन्हें कैथल ले आयी और कल वे अपने अज़ीज़ दोस्तों जनाब दिनेश यादव और तरुण वर्मा के साथ अपने वालिद और अपनी अम्मी के घर गए . वक़्त ने हांलाकि मंज़र बदल दिया है, हवेली के आसपास बाज़ार उग आया है, फिर भी फरहत साहब को वहा की गलियों, वहाँ की हवा, पेड़ों, घरों, इधर-उधर डोलते पिल्लों और यहाँ तक की नालियों को देख कर महसूस हुआ जैसे वो अपने घर, अपने अब्बा के घर आये हैं ....अपनी अम्मी के घर.........आये हैं .....
   वे उस मस्जिद में भी गए जहां कभी उनके अब्बा जाया करते थे. आसपास के बाशिंदों से बात कर जैसे उनकी रूह को सुकून सा मिला.
   शाम को शहर के बाशिंदों ने उनका इस्तकबाल किया. कोयल काम्प्लेक्स में तकसीम(विभाजन) के समय उजड़ कर कैथल आये लोग उनकी एक झलक लेना चाहते थे....प्राध्यापक, दुकानदार, सरकारी मुलाजिम भी जिनके परिवार उधर से आये थे और जिन्हें अपने ज़मीन की खुशबू लेकर आये फरहत साहब को सिजदा करना था, वहां मौजूद थे.
       आये हुए लोगों की मुहब्बत फरहत साहब की आँखों को नम कर गयी. उन्होंने कहा की इतिहास में जो कुछ घट चूका है उसे हम बदल नहीं सकते....लेकिन हम आने वाले समय को बेहतर बना सकते हैं. दोनों मुल्कों का माजी (अतीत) एक रहा है, दोनों की आबो-हवा एक है, तहजीब एक है.....और लोग एक हैं जो अमन और शान्ति चाहते हैं. उन्होंने कहा की कुछ ही लोग हैं जो बुरा चाहते हैं, बाकी अवाम तो हमेशा बेहतरी चाहती है. हमें अवाम पर भरोसा करना चाहिए. दोनों मुल्कों के अमनपरस्त साहित्यकारों,  फिल्मकारों, फनकारों और पढ़े-लिखे लोगों की सांझी कोशिश से ही मुहब्बत को कायम रखा जा सकता है.
    
       कार्यक्रम के दौरान गंगा-जमुनी संस्कृति की बेहतरीन मिसाल देखने को मिली. मुल्तान से आकर बसे अजीम शायर राणा प्रताव गंनौरी साहब ने मुल्तानी में नज्में पढ़ीं. वो अभी भी अपनी माँ-बोली को जिंदा रखे हुए हैं. तो दूसरी तरफ फरहत साहब ने भी ठेठ हरियाणवी में किस्से सुनाये. यहाँ डेरा गाजी खान के दो बेटे भी पहली बार आपस में मिले, एक फरहत साहब तो दूसरे कैथल के जानेमाने साहित्यकार डा. अमृत लाल मदान. मदान साहब और उनकी पत्नी का परिवार विभाजन के समय डेरा गाजी खान से यहाँ आकर बसा था.
    फरहत साहब ने बताया की उनकी पत्नी हिन्दुस्तान से हैं. और वे जल्दी ही देवनागरी पढ़ना और लिखना सीखने जा रहें हैं ताकि वे हिंदी रचनाकारों को भी पढ़ सकें. फरहत साहब न जाने कितनों की ख्वाहिशें बन कर यहाँ आये थे. उनके मार्फ़त न जाने कितने लोगों ने अपनी ज़मीन को सिजदा किया. न जाने वे कितनों के दिलों में अपनी ज़मीन को बस एक बार देखने की ख्वाहिशें जगा गए. उनके अब्बा ने उनसे कहा था, फरहत, मुझे हज पर भले ही न ले जाना, पर एक बार कैथल ज़रूर दिखा देना. अब्बा की ख्वाहिश तो सियासी दांव-पेंचों मे उलझ कर रह गयीं पर फरहत साहब को ज़रूर सुकून मिला होगा. और हम सब उन्हें देख कर कृतार्थ हुए.......


         

गुरुवार, 1 नवंबर 2012


                              सरस मेला ....कैथल की कहानी और  "सम्भव" की प्रदर्शन

  ज़िंदगी एक मेला है  और मेला ज़िन्दगी .मेलों के बिना ज़िंदगी अधूरी है और मेले ज़िंदगी की रवानी को बनाए रखते हैं.....सदियों से चले आ रहें हैं मेले. ज़िंदगी की जद्दोजहद के बीच मेल-मिलाप, घूमने - फिरने, खाने - पीने ,रौनक देखने, कला के हुनर देखने, खरीद-फरोख्त , किसिम-किसिम के करतब देखने और न जाने क्या-क्या के लिए लगते रहें हैं मेले...
       आजकल कैथल में लगा "सरस मेला" भी लोगों को अपनी ओर खींच रहा है. जगह-जगह से आये शिल्पकार और उनके बेहतरीन सामानों को खरीदने वालों की जहां भीड़ लगी है तो वहीं  शाम को अलग -अलग सांस्कृतिक कार्यक्रम एक अलग ही समां बांधते हैं. लेकिन इन सबके बीच जो जगह सबसे ज़्यादा लोगों को खींच रही है वह है 'संभव" सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था द्वारा लगाई गई प्रदर्शनी- "मैं कैथल हूँ ". कैथल के पौराणिक महत्त्व के स्रोतों को बताती कैथल की कहानी ले जाती है हमें सुदूर अतीत में ..... हड़प्पा काल की बस्ती में हुई खुदाई में मिले  पुरातात्विक स्रोतों को प्रस्तुत करती,  कलायत के प्रतिहार राजाओं के भव्य मंदिर को दर्शाती , रजिया के मज़ार की सैर कराती  यह प्रदर्शनी अट्ठारह सौ सत्तावन में कैथल शहर और आस-पास के गाँवों में धधकी ज्वाला का बयान करते स्वतंत्रता आन्दोलन में कैथल की भूमिका और कैथल में गांधी जी के आगमन का ज़िक्र करती है.. यह विभाजन की पीड़ा को भी बताती है...आज़ादी के बाद यहाँ हुए विकास और विडंबनाओं की चर्चा करते हुए अतीत के सांझेपन को बरकरार रखने की  अपील के साथ यह प्रदर्शनी  सामाजिक बदलाव के लिए सबको अपनी भूमिका निभाने का आह्वान करती है ...  
      प्रस्तुत है प्रदर्शनी और मेले की एक झलक..

अपने शहर..अपने अतीत में खुद को तलाशते लोग 

         
             
        प्रदर्शनी में लोग--कैथल की विरासत को देखते और महसूस करते...        



सांझी विरासत....
दो पीढियां ....कैथल को समझने की कोशिश में....
नन्हीं बेतिया...इतिहास को समझने की कोशिश में.....





अरे, ये क्या है??

मेले में........जादू........


















यह मात्र झलक थी..... हम मिलते रहेंगे.....मेले के और भी रंगों के साथ.....

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

हज़ारों सालों से "लोक" में बसा फल्गु मेला ..



                  पिछले दिनों गुजरा फल्गु मेला हज़ारों सालों से  कैथल की संस्कृति , इतिहास और लोकजीवन का हिस्सा रहा है. मेलों के बिना  क्या हम किसी समाज की कल्पना कर सकते हैं? इंसान ने जीवन के साथ अपने संघर्ष में हमेशा जीवन को सुन्दर बनाने की कोशिश की है....मेले ज़िंदगी को खूबसूरत बनाते रहें हैं. ज्यादातर मेलों के पीछे कोई धार्मिक कहानी भले ही रही है , लेकिन वास्तविकता यह है कि मेले जी - तोड़ मेहनत के बाद अपने बाल-बच्चों और परिवार के साथ घर से बाहर निकल कर पूरे समुदाय के साथ मौज- मस्ती और खुशियाँ मनाने का एक बहाना भी रहा है. भोजपुरी के महान  लोककवि  और गीतकार  कैलाश गौतम की लोकप्रिय कविता "अमौसा के मेला" (अमावस्या का मेला) की कुछ पंक्तियाँ आपके लिए प्रस्तुत हैं जो  यहाँ बेहद मौजूं है...

................................................
 भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा.
अगल में, बगल में,सगल गाँव देखा, 
अमौसा नहाए चलल गाँव देखा.
.......
  फल्गु मेले का इस पूरे इलाके में बहुत ज़्यादा महत्व रहा है.  इस इलाके के लोग तो यहाँ पितरों की पूजा और दान के लिए आते ही हैं, ऐसे लोग जो कई पीढी पहले कैथल से किसी दूसरी जगह जाकर बस गए, वे भी यहाँ अवश्य आते हैं.
      "कैथलनामा" टीम ने भी फल्गु मेले का आनंद उठाया. अदभुत नज़ारा था. पंजाब से लेकर राजस्थान तक के लोग हज़ारों लोग, बड़े - बूढ़े,  औरतें  और बच्चों का सैलाब... सारा इलाका  कोलाहल में डूबा, धर्म जाति के बंधनों को तोड़ता ...जीवन का भरपूर आनंद उठाता...
   कुछ खुशनुमा पलों को हमने कैमरे  में कैद किया. प्रस्तुत है आपके लिए एक एल्बम..




 इसे कहते हैं जिजीविषा.... राजस्थान से आयीं दादी ...

                             
                                 

खजाला.... यू.पी. में इसे खाजा कहते हैं. अब मेलों में ही दिखता है. मेले वास्तव में संस्कृति को कितना बचा कर रखते है... और संस्कृति को कौन बचाए रखता है?? आम लोग...सदियों से संस्कृति आम लोगों के कारण ही बची रही 




एक दूसरे को संभालती ...दो पीढियां ....चली मेला देखन को...




झूले... इनके बिना मेला पूरा नहीं होता...दिल थाम कर बैठते हैं लोग इस पर...देसी टेक्नोलोजी, देसी हुनर... 
 
उदास क्यों है बच्चा...वो भी मेले में ??







 पितरों को याद करते.


प्लास्टिक के खिलौनों ने मिट्टी के खिलौनों की जगह ले ली है...फिर भी खिलौने, खिलौने हैं ...बच्चों के लिए ज़रूरी. इस बच्चे को भी खिलौने से खेलने की फुर्सत मिलती होगी क्या ?
नट-नटी..यह संतुलन बनाने में कितनी मेहनत छिपी है...जिसकी कोई कद्र नहीं...इन्हें कोई संभाल ले तो ये सोना ले आयें ओलम्पिक में...

जलेबा...

और अंत में मौत का कुआं ...जीवन के लिए मौत का कुआं....

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

मलाला, गजाला और हमारी बबलियाँ


                 

    मलाला , गजाला  और बबली..... इनमे क्या कोई सम्बन्ध है?? ये कैसा शीर्षक ? आज दिमाग गड्ड-मड्ड हो रहा है... पिछले दिनों पाकिस्तानी बच्ची मलाला पर सिर्फ इस बात के लिए हमला हुआ कि वह पढ़ना चाहती थी.(वो समझती है कि वो इक्कीसवीं सदी में है, बेवकूफ बच्ची ...!) आज शाम समाचार देखा कि हरियाणा में पिछले चौंतीस दिनों में उन्नीसवां बलात्कार का मामला फतेहाबाद में हुआ ( ये हिन्दुस्तान है भाई, सरकारी आंकड़ों में कृपया स्वयं सुधार कर लें) और कुछ ही देर पहले बबली के दाह-संस्कार से लौटी... बबली, ये बबली कौन थी ? मैंने उसे देखा भी नहीं था....बल्कि आज ही उसका नाम जाना... कृष्ण, मेरे घर जो बच्चा दूध देने आता है, उसकी बहन...बबली. ब्याह दी गई थी- नहीं-नहीं, आठ साल पहले रिश्तेदारी में, दे दी गई थी.  अंटा-संटा यानि अदला-बदली की परंपरा के तहत. कितना आसान तरीका ...! अदला-बदली... वर ढूँढने, घर, परिवार, जायजाद देखने की ज़हमत भी नहीं उठानी पड़ी. एक खूंटे से दूसरे खूंटे बांधनी ही तो थी . जल गयी बबली, मर गई बबली...इनवर्टर से ! नया तथ्य है, स्टोव या गैस  से बहुओं का जलना तो सुना था.. पर इनवर्टर से मौत, पहली बार सुना. खैर...नब्बे प्रतिशत जली बबली मरते-मरते भी कह गई किसी ने नहीं जलाया मुझे.. मै तो इनवर्टर से जल गई....! बबली के  इनवर्टर से जलने पर भरे-पूरे परिवार में उसे कोई नहीं बचा पाया...! दो दिन अस्पताल में जलने का ज़ख्म बर्दाश्त करती, ससुराल, मायके और पुलिस वालों से जूझती आखिर उसे मुक्ति मिल ही गई....गाँव की बूढ़ी औरतों ने भी बबली की माँ को समझाया, रो न, आज तो उसे मुक्ति मिली है....कितनी शरीफ थी बेचारी. इब तो स्वर्ग पहुंची गई होगी. इन बुज़ुर्ग महिलाओं को खासा अनुभव जो था. ठीक ही कह रहीं थीं वे. बबली नरक से निकल कर स्वर्ग में ही तो गई...वंश चलाने के लिए एक बेटे को छोड़ गई..पता नहीं कब से क्या-क्या झेल रही थी दस साल की शादी.. यह कैसी शादी थी?? बबली...घरवालों की इज्ज़त बचाती रही...रोज़-रोज़ ऑनर-किलिंग होती रही...
   रोज़ ही तो मरती हैं बबलियाँ -रिपोर्टेड या अनरिपोर्टेड". गजाला जावेद को महज़ इसलिए मार दिया गया कि वो गाती थी, मलाला को इसलिये गोली मार दी गयी कि वह पढ़ना चाहती थी, बबली इसलिए इनवर्टर से जल गई क्योंकि वह जीना चाहती थी.
जो वहशीपन और बलात्कार का शिकार हो रहीं हैं वह भी तो जीते-जी मर ही तो रहीं हैं. इन सबका दोष क्या है ? किसने हक दिया उन्हें मारने का? बबलियों का जीना-मरना कोई और तय करता है...शादी-ब्याह कोई और तय करता है....कहीं खाप तो कहीं तालिबान फरमान देते हैं कि लडकियां पढाई न करें, शादी की उम्र घटा दी जाए, या फिर लड़कियों के पहनावे या चाल-चलन को ही बलात्कार का कारण घोषित कर दिया जाता है. किसी राजनीतिक दल को किसी भी बबली से कोई लेना-देना नहीं.
  बबली सिर्फ बबली मानी जाती रही हैं. इन्हें जीता-जागता इंसान मानना शुरू कर दिया जाय तो कोई मलाला नही गोली का शिकार होगी, कोई बबली नही मारी जायेगी, वहशीपन से इंसानियत शर्मसार नही होती रहेगी....लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है.....फिर भी, बदलना तो  पडेगा ही...इंसान की ज़िंदगी का सवाल जो है....
    
                    
     
                     

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

ये क्या हो रहा है


                     ये क्या हो रहा है

      पिछले कुछ  हफ्ते हरियाना में बेहद तनावपूर्ण रहे हैं ... लगातार बढ़ती छेड़खानी की घटनाएं,बलात्कार...पीड़ित लड़की का आत्मदाह ,पिता द्वारा शर्म से आत्महत्या...और साथ ही अलग अलग जगहों पर लोगों का, खासकर,महिलाओं का इसके विरोध में सड़कों पर उतर आना. शहरों में मोमबत्ती मार्च से लेकर गांव की औरतों का लाठियों के साथ गाँव की सड़कों पर गुस्से का प्रदर्शन ... बढ़ती बालात्कार की घटनाएं,और उनका संगठित विरोध.. ये दोनों ही हरियाणा के लिए नयी परिघटना है. यहाँ पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से आर्थिक विकास हुआ है. सेज के नाम पर ज़मीने ली गयी हैं,लाखों रुपये जितनी तेज़ी से किसानों के पास आये,उतनी ही तेज़ी से उड़ भी गए. लाखों बेरोजगार हैं और विषम लिंगानुपात के कारण अविवाहित नौजवानों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ी है.. जातिगत राजनीती भी तल्ख़ हो गयी. दलित-जाट सम्बन्ध बेहद तनावपूर्ण हो रहें हैं.
      पिछले दिनों बलात्कार की ज़्यादातर घटनाएँ दलित लड़कियों के साथ घटीं . ये घटनाएं पुलिस और कानून से कम तो की जा सकतीं हैं,खत्म नही की जा सकतीं. जब तक महिलाओं के बारे में मध्ययुगीन सोच मौजूद रहेगी,जातिगत राजनीति मौजूद रहेगी,समाज का ताना-बाना पुरानी तरह का बना रहेगा जिसमें लड़कियाँ निरीह मानी जाती रहेंगीं और जब तक पुरजोर विरोध नहीं होगा, इन घटनाओं को  कम नहीं किया जा सकता.
      कैथल में छेड़खानी के खिलाफ अखबारों ने भी अभियान छेड़ रखा है. पुलिस सक्रिय हुई है. लेकिन अब समय आ गया है कि हम लड़कियों और औरतों के विषय में नए तरह से सोचना शुरू करें. उन्हें पढाएं,आर्थिक रूप से आज़ाद होने दें,पितृवादी सोच बदलें..विवाह संबंधी सोच बदलें...सम्भव इन घटनाओं का विरोध करता है,इसके खिलाफ संघर्ष कर रहे लोगों का समर्थन करता है,और शीघ्र ही कैथल में संगठित विरोध और प्रदर्शन का आयोजन  करने वाला है. इस विरोध में कैथलवासियों का समर्थन ज़रूरी है. हमें उम्मीद है आप सभी का सहयोग मिलेगा.

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

Of Jan and Tantra - By Nivedita


(जनलोकपाल की मांग से शुरू हुआ सिविल सोसायटी का आन्दोलन विभिन्न पड़ावों से होता होता हुआ आखिरकार टूट-बिखर कर और एक तरह से नये तरीके से जुट कर एक नए मुकाम पर आ पहुंचा है. तमाम सहमतियों और असहमतियों के बीच इस आन्दोलन ने कुछ सवाल तो खड़े किये ही 
हैं. निवेदिता का यह लेख इस सारे मसले को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करता है और कई नए बुनियादी सवाल खड़े करता है. हो सकता है कुछ हिस्सों पर कुछ साथियों की असहमति हो ( मेरी भी हैं ). लेकिन मौजूदा स्थिति पर यह अत्यंत रोचक एवं पठनीय टिप्पणी है.)

For or the last few days, there have been many discussion in on the subject politics Vs popular movement. Of course, inspiratin behind this is Arwind Kejriwals’ decision to go political and the amritwani of Anna sahib (“rajneeti gandi cheez hai. Isse desh ka udhhar nahi ho sakta. Bhrashtachar nahi ruk sakta. Jan-andolan hi sahi rasta hai”).
How innocent! As far as understanding goes, any system meant for regulating, institutionalizing and leading the collective behavior of a society is politics or rajneeti, irrespective of the fact whether the same is implemented by Monarchs, clergy, small political communities or by political leaders. Even Anna’s ideology of publicly beating somebody for any social sins or banning TVs etc in the village is Rajneeti if given legal sanction. So how can Bhrashtachar be combated without rajneeti! Even for publicly beating or hanging of bhashtacharis, legal sanction is required. Law is required. How will it be possible without rajneeti? Or do the intellectuals believe that even law is not required for this! Just collect crowd of some thousand, raise some demand and get it implemented themselves. What an idea!

In this connection, observations of some intellectuals and political parties are also noteworthy according to which that Kejriwal was exposed and Anna is seedha sada person misguided by others. Does it mean that implementing policies without legality is ok and forming political party is a sin? At least Kejriwal and his co. have accepted the responsibilities of fighting challenges of public life by being accountable to the public. If hardcore criminals and murders can aspire to become PM of the country what is wrong in Kejriwal’s dreaming for the same. Political establishment is not the monopoly of some odd political parties existing as on date. Forming Political party by making corruption the core issue and not inciting communal-castiest sentiment can’t be held as unacceptable.(although I am neither saying nor expecting  that Kejriwal and party are doing so or will do so. But their decision to form political party and fight elections should be defended).

In my opinion such reactions rest in the fact that we Indians are completely undemocratic society. We just don’t value democracy because, perhaps, we have got it on platter. In the other parts of the world, the middle class and the newly emerged elite (capitalist) class fought to overthrow the feudal set up of respective nations by invoking miseries and aspirations of common people. But after success they didn’t give any power to them.  Common people had to fight separately for their economic/social and political rights. The process took some hundreds years more and by that time, common people had to fights myths propagated by Adam Smiths, Malthuses, Mills and many more. They   had to adopt many ways and disciplines of the high class also by shedding age old traditions and beliefs.

But Indian National Movement was more liberal. India became a democratic republic immediately on acquiring political freedom and people here didn’t have to fight separately for this. They take part in governance of the country even though they don’t believe in many laws of the land: such as, those on child marriage, casteism, child labour, dowry, pre-natal sex determination and many more. Noble ideals contained in the preamble of our constitution hardly have any meaning for us. We We are voters and can become candidates for election also even though we indulge in activities like bride burning, ordering public killing of couple marrying outside caste line, openly advocating and participating in casteist/ communal activities and what not. In absence of any economic compulsion, any major desi social movement or any struggle for our rights; we hardly have any reason to give up our feudal ways of living/ thinking. We still believe in raja-praja concept. We are bechari praja and political establishment is mighty raja. So our sole believe is that we have no responsibility towards society, just leave every thing to rajas. We will remain what we are and this is for the rajas to rule us ideally. No surprise that when we ourselves become leaders, bureaucrats or even sarkari sepoys or babus, we consider ourselves nothing less than rajas. We expect lavish life, think ourselves not among common mass and take pride in our status if people come to us again and again for getting their smallest work done.

By above observation I don’t intend to mean that political class is innocent and onus for every thing is on the mass. I am bitter to aam aadmi (read intellectuals) because my sincere believe is that directions of history are decided by masses and not by a few classes. I believe in looking at history or at present from below and not from above. Directions of changes are invariably influenced by the nature of pressure the system receives from different corners. It is not co-incidence that every Chandragupta or Ashoka was preceded by intellectual movements of Gautam Budha, Mahaveer and other thinkers and every Shershah and Akbar were preceded by Kabir and others. Focus of these thinkers was not the ruling class but beliefs and traditions of the entire society of which the ruling class was taking advantage to deny justice to common man. By giving stress on logic and denouncing illogical religious and social practices, they encouraged environment where people were ready to accept changes. Thus it was possible for not so pure people to reach the top (Chandragupta was perhaps not Kshatriya and Shershah or Akbar also made many experiments with the structure of bureaucracy. Merit and social acceptability was the main criteria instead of noble birth). Democracy in Europe was established only when essences of renaissance and reformation movements had penetrated into European society. Even Mahatma Gandhi gave adequate importance to peasants, tribal etc. after seeing and analyzing their aspirations and energy reflected through various such movements already in scene. Anti- un touchability became integral part of Gandhi’s movement only after such movements were actually organized by depressed classes in different parts of the country. In sum, leaders are not all mighty and capable. They too get vision and courage to implement progressive decisions and policies if wind is in this favour or they are pressurized to do so.  We all criticize Nehru for not implementing uniform civil code or not acting against religious/ lingual/ social messes adequately but can we imagine how a leadership could act tough on social/ religious matters when it itself was a witness of partition and the massive carnage of 1946-47- unprecedented in human history!  

Applying this on present day’s situation, it can hardly be said that we are capable of acting as progressive pressure groups on the system. Both our thoughts and our actions are anti- constitution and against laws of the country. In our every day life, we don’t find anything wrong (when concerns to ourselves) in ill-treating our elders, children and ladies, practicing religious or casteist fanaticism, treating servants like slaves, black marketing or adulteration or breaking all everyday rules. So, is there any surprise if police and in many cases judges’ also react as per popular sentiments on such issues (because they are also ones amongst us and have same sentiments and beliefs like us)?  If for any reasons actions are initiated on such issues, we don’t hesitate in bribing the parties to get justice in our favour. In such situation, isn’t it true that overwhelming majority of Indian population will be in jails if laws are implemented with iron hands! It will also be interesting to think if any government will come back to power if it dares to do so! it will be even more interesting if other players in the political establishment do not react agressively and promise to udo everything if voted to power! we have turned our democracy into a playground where victorious is one who exploits people sentiments the most. people's sentiment is the key driver of the system. greatest weapon of status co-ism! thats is why i have elaborated so much on people's sentiments.

The fact is that we are accustomed to live in lawlessness and it really suits us also. So, just denouncing some practices as per our convenience is nothing but wolf-cry. A so- called movement which attacks politics only and never addresses serious ills that plague the society can hardly be termed as social movement. If such movements think that good governance is possible even in socially/ culturally hostile atmosphere, they should come to top, provide such un-corruptible and ideal governance and prove me wrong. If a highly political movement says that politics is untouchable, it’s most unfortunate. It’s not that politicians and leaders of the country have fulfilled their duties. No, they have rather failed the nation. But as far as praja is concerned, it is equally responsible for taking the nation to mess.
( Nivedita )

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

क्या हो रहा है हरियाणा में ?


आये दिन बलात्कार : ये हो क्या रहा है हरियाणा में? आये कुछ दिन बाद कहीं न कहीं सामुहिक बलात्कार की घटना. सम्मान के लिए हत्या, कन्या भ्रूण हत्या जैसे कलंकों के बाद यही कसर बची थी शायद. सोमवार को भिवानी में एक नाबालिग लड़की से सामुहिक बलात्कार का समाचार है. पिछले हफ्ते सोनीपत के गोहाना कस्बे में ग्यारहवीं कक्षा की एक छात्रा के साथ एक व्यस्त बाज़ार में कहीं बलात्कार की घटना हुई. इससे पूर्व जींद की महिला के घर तीन व्यक्तियों ने जबरदस्ती घुसकर उसके साथ बलात्कार किया. पीड़ित महिला का कहना है कि बलात्कारियों ने इस जघन्य कृत्य का वीडियो बनाया और धमकी दी कि अगर उसने मुंह खोला तो तो वे इस विडियो को सार्वजनिक कर देंगे. नौ सितम्बर को हिसार के एक गांव में एक नाबालिग दलित लड़की के साथ आठ व्यक्तियों ने सामुहिक बलात्कार किया. यह मामला घटना के दस दिन बाद प्रकाश में आया था. इस दौरान पीड़ित लड़की अपने-आप में ही घुटती-मरती रही, जब बात बर्दाश्त से बाहर हो गई तो उसने अपने परिवारवालों के समक्ष रोते-बिलखते सारा घटनाक्रम रखा. परिवारजनों ने जब पुलिस में रपट दर्ज कराने का प्रयास किया तो पुलिस ने एफ.आई.आर. तक दर्ज नहीं की. बदनामी के डर से और बेटी के अपमान से टूट चुके बाप ने अगले दिन आत्महत्या कर ली. जब क्षेत्र के लोगों ने दोषियों के पकड़े जाने तक मृतक पिता का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया तो पुलिस ने एक आरोपी को गिरफ्तार कर लिया. इस घटना के बारे में भी खबर है कि आरोपियों ने बलात्कार का वीडियो क्लिप बनाकर उसे एम.एम.एस के ज़रिये अन्य लोगों तक पहुंचा दिया. बताया जा रहा है कि भिवानी में कल हुई इस जघन्य घटना के पश्चात हरियाणा के पुलिस महानिदेशक ने सभी पुलिस कर्मियों की छुट्टियाँ रद्द कर दी हैं. बलात्कार - क्या सिर्फ कानून और व्यवस्था का मसला है ? हरियाणवी समाज पितृसत्तात्मक मूल्यों में जकडा समाज है जहां औरत की स्थिति दोयम दर्जे की है. आर्थिक आंकड़ों के हिसाब से भले ही हरियाणा को अव्वल माना जाने लगा हो लेकिन साँस्कृतिक विकास के मामले में यह सूबा अब भी मध्य युगीन परम्पराओं को ढो रहा है. इन परम्पराओं की गाज लगातार गिरती रही है औरत पर या फिर दलित पर. हरियाणा के तमाम जनचेतना से लैस सामाजिक -सांस्कृतिक संगठनों व बुद्धिजीवियों को मौजूदा स्थिति पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता है. त्वरित कानूनी कार्यवाही से पीड़ित-परिवार के जख्मों पर फौरी तौर पर मरहम तो लगाया जा सकता है लेकिन समाज के इस नासूर से रिश्ते बदबूदार खून को रोकने के लिए बड़ी सर्जरी की आवश्यकता है.

रविवार, 30 सितंबर 2012

कैथलनामा और संभव का भगत सिंह को सलाम


                      28 सितम्बर, यानि भगत सिंह . भगत सिंह यानि हिन्दुस्तान का सबसे अज़ीम बेटा... इस बेटे का जन्मदिन हिन्दुस्तान भर में मनाया गया और आज ही खबर मिली कि पाकिस्तान में भी जहां लाहौर में पुरानी लाहौर जेल थी, जहाँ भगत सिंह को फांसी दी गई थी, उस जगह को  “भगत सिंह चौक” का नाम देकर उनकी शहादत को सलाम किया गया. 27 सितम्बर से ही देश के गाँवों, कस्बों, शहरों, स्कूलों, और सामाजिक संगठनों के द्वारा भगत सिंह के विचारों और जज्बों को याद करते हुए पढ़े – लिखे और गाँव के धुर अनपढ़ लोगों ने भी भगत सिंह को याद किया.
   हमने भी “संभव’ और “प्रेमचंद पुस्तकालय” की ओर से कैथल के गाँव तितरम में 26  से लेकर 30 सितम्बर तक बिलकुल अलग – अलग तरह के कार्यक्रम किये.
       26 सितम्बर को “संभव” के कार्यकर्ताओं, समर्थकों और चाहने वालों ने भगत सिंह की पूरी विचार यात्रा और काम करने के तरीकों में समय के साथ आये बदलावों पर बातचीत की . हमने जानने की कोशिश की कि आखिर देश के प्रति मोहब्बत का वो कौन सा जज्बा था जिसने अट्ठारह- उन्नीस साल के एक नौजवान को चुपचाप अपने पिता को एक ख़त लिख कर अपना घर – बार छोड़ देश के लिए कुर्बान होने के लिए प्रेरित किया. “नौजवान भारत सभा” “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” और  “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी” के गठन और भगत सिंह के विचारों के क्रमशः साफ़ होते जाने, असेम्बली में बम फेंकने और फांसी के लिए जिद करने के पीछे उनके तर्कों पर हमने चर्चा की. हमने पाया की देश, समाज, राजनीति, भाषा, साम्प्रदायिकता, धर्म, साहित्य, नौजवानियत, मोहब्बत, रूमानियत और न जाने क्या - क्या....शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर भगत सिंह ने सोचा और लिखा ना हो. बातचीत में लोगो ने जोर दिया कि आज हर गाँव क्या बल्कि हर इंसान को भगत सिंह बनने की ज़रुरत है क्योंकि आज भी वे समस्याएँ, शोषण और भेद- भाव मौजूद हैं जिन्हें भगत सिंह ख़त्म करना चाहते थे. कार्यक्रम में भगत सिंह के कुछ लेख भी पढ़े गए और आंगनवाडी यूनियन लीडर संतरों ने भगत सिंह पर एक रागिनी सुनायी.
       हमें लगा कि छोटे-छोटे  भगत सिंह पैदा करने का एक तरीका यह हो सकता है कि, हम अपने आसपास के बच्चों से भगत सिंह के बारे में बातें करें. आखिर जलियाँ वाला बाग़ की मिट्टी उठाकर गोरी सरकार को उखाड़ फेंकने की कसम खाने वाला एक नन्हां भगत ही तो था.....हमने तितरम के ‘प्रेमचंद पुस्तकालय” में गाँव के बच्चों को बातचीत और देशभक्ति के गीत गाने के लिए आमंत्रित किया. हमे लगा था कि गवैया किस्म के थोड़े से बच्चे आ जायेंगे . लेकिन यहाँ तो लाइब्रेरी का हॉल खचाखच भर गया. हॉल भर गया तो कई खिडकियों पर लटक गए . कुछ ने दरवाजों में पिरामिडनुमा दर्शक – दीर्घा ही बना डाली तो कुछ मेजों पर ही चढ़ गए....बच्चों का ऐसा सुहाना कोलाहल की  मन झूम उठा . दो साल की  बच्ची से लेकर पंद्रह साल के बच्चे तक.... कुछ नौजवान अपने आप ही इस बाल- तूफ़ान को अनुशासित करने और उन्हें बैठाने में लग गए. सब गाने को तैयार....किसे गंवाएं और किसे न... खैर, सबने मिलकर भी गाया और जो ख़ास तैयारी कर के आये थे उन्हें ख़ास मौक़ा भी दिया गया. उन्हें भगत सिंह की कहानी भी सुनायी गई.
     इस कार्यक्रम के दौरान हमे लगा कि शहर की तुलना में गाँवों के बच्चे भगत सिंह के बारे में ज़्यादा जानते हैं... शायद इसमें गाँव के पुरानी परम्परा के आदर्शवादी मास्टरों का योगदान है.
       हमें लगा कि निश्छल और उत्साही बच्चों में ही देश के लिए मोहब्बत का जज्बा भरना शुरू कर देना चाहिए. उन्हें हम अपने हिसाब से ढाल सकते हैं. एक बेहतर इंसान बना सकते हैं. खेल, गीत, फिल्म, कहानियों, नाटक या फिर बाल - कार्यशालाओं के ज़रिये बिना दबाव डाले उनमें वैज्ञानिक समझ और विचार विकसित किये जा सकते हैं.
         इसी क्रम में हमने तीसरा कार्यक्रम 30 सितम्बर को तितरम की दलित बस्ती में किया. कितने शर्म की बात है कि इंसान और गाँव “अगड़े” और “पिछड़े” में बंटे हुए हैं. हर गाँव में एक “दक्खिन टोला” होता है जैसे अंग्रेजों के समय “व्हाइट टाउन” और “ब्लैक टाउन” हुआ करते थे. ब्लैक टाउन  तो गंदगी भरे, भीडभाड़ वाले और उपेक्षित होते थे...दलित बस्ती, यानि दक्खिन टोले भी ऐसे ही होते हैं. यहाँ उपेक्षित, सदियों से दबाये गए, भेदभाव के शिकार, कम पढ़े लिखे बेरोजगार किस्म के लोग रहते हैं जो छोटा मोटा काम कर लेते हैं. लेकिन हमने पाया कि ये अपनी बेटियों से मोहब्बत करतें हैं. लेकिन गरीबी ,पिछड़ेपन और अशिक्षा के कारण उन्हें पढ़ा नहीं पाते. तितरम और ‘संभव” के हमारे कार्यक्रमों में भी उनकी भागीदारी सामाजिक ताने-बाने के कारण सीमित ही रही है. इसी दूरी को पाटने के लिए हमने 30 सितम्बर को इस बस्ती में एक बैठक की जिसमें  ऎसी लड़कियों को पढ़ाने की योजना बनाई जिन्होंने गरीबी या किन्हीं और वजहों से अपनी पढाई छोड़ दी है. हमारी सभा में बीच में ही पढाई छोड़ चुके forced  बेरोजगार भी अपनी पहलकदमी से आ गए.
        इस कार्यक्रम के दौरान हमें लगा की हर तरफ एक बेचैनी , एक खालीपन , एक कसमसाहट और गुस्सा है. बस ज़रुरत है उसे एक सही दिशा और  एक सही रास्ता देने की . कालजयी नायकों की प्रेरणा से नए नायक – नायिकाएं पैदा करने की. हमारा यही प्रयास रहा है. यही है हमारा तरीका भगत सिंह के प्रति हमारी मोहब्बत  दीवानगी दिखाने और उन्हें सलाम करने का....
 (कार्यक्रम का एलबम हम जल्दी ही पोस्ट करेंगे )

बुधवार, 26 सितंबर 2012

किस्सा भगत सिंह-(ऑडियो)-हरियाणवी-भाग चार (अंतिम)

प्रस्तुत है भगत सिंह के किस्से की अंतिम कड़ी.(भगत सिंह - जन्मदिन 27 सितम्बर पर विशेष) शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशान होगा.इन्कलाब जिंदाबाद. भगत सिंह ने मन्ने मिला दो तन का करदे ढेर इस कारण कुनबा सारा सौ सौ पड़े मुसीबत तेरी रजा में रजा

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

किस्सा भगत सिंह (ऑडियो)- हरियाणवी -भाग तीन

पूत तेरे ने मारण भगत सिंह की चिट्ठी

टेंडर डेंगू का......



     काफी समय से अखबारों में कैथल जिले में फैले डेंगू , जापानी बुखार और मलेरिया से मरने वालों की ख़बरें आ रहीं हैं. जिले में संदिग्ध बुखार से अब तक दो लोगों की मौत हो  चुकी है. जब कैथल जिले में जपानी बुखार की टेस्टिंग सुविधा है ही नही तो कैसे कहा जा सकता है कि जिले में और भी जो मौतें  हुई हैं वह जापानी बुखार से नहीं हुई हैं... आखिर कितने लोग शहर आकर अपना इलाज करा पाते  हैं ? कितने आश्चर्य की बात है की मच्छरों से निजात पाने के लिए फॉगिंग में इस्तेमाल होने वाली दवा तक का इंतजाम नही हो पाया है...क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि किसी तरह अपने परिवार का गुजर बसर करने वाले लोग महंगे होते इस समय में  रोज हिट जैसी मच्छर मार दवाइयों को खरीद पाते हैं ? पिछले साल इन बीमारियों  से लगभग एक दर्जन मौतें हुई थीं. यह तो सिर्फ सरकारी आंकड़ा है.... सच पता नहीं क्या हो...एक साल में जनता ने अपने खून-पसीने की गाढ़ी कमाई का पता नहीं कितना हिस्सा सरकार को दिया है....पिछले एक साल में कुछ लोगों के खातों में जमा राशि में शून्य की संख्या इतनी बढ़ गयी है की उन्हें गिनने में आम आदमी का दिमाग गड्डमड्ड होने लगता है. देश में धन की कमी नहीं है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ये मामूली सुविधाएँ भी लोगों को नहीं मिल पा रहीं हैं. बेरोजगारों की फ़ौज के बावजूद  आदमी की जान से जुड़े इतने महत्वपूर्ण महकमे में कर्मचारियों की संख्या  इतनी कम है की योजनाओं को ठीक से अंजाम भी नहीं दिया जा पाता. अधिकारियों का कहना है कि इस साल डेंगू और जापानी बुखार के मच्छरों को मारने के लिए फॉगिंग में इस्तेमाल होने वाली दवाओं का टेंडर ही देर से हुआ...क्या ही अच्छा होता की ये अधिकारी टेंडर में विलम्ब की सूचना यमदूत को भी भेज देते ताकि वे असमय मौत देने के पाप के भागीदार तो नहीं बनते.
          डेंगू और जापानी बुखार पिछले सात - आठ से सुनी जाने वाली बीमारियाँ हैं...ये नए ज़माने की , बदलते आर्थिक - सामाजिक परिवेश की , नए किस्म के औद्योगिक कचरे के कारण पनपने वाली और सरकारों के बेगाने होते जाने वाले वक़्त की बीमारियाँ हैं.... इनसे सामूहिक और सार्वजनिक तौर पर ही निबटा जा सकता है. संवेदनशील सरकारें ही इनसे निपट सकती हैं.    

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

किस्सा भगत सिंह (ऑडियो) हरियाणवी-भाग दो

प्रस्तुत है भगत सिंह के हरियाणवी किस्से का अगला भाग ना मान्या धड़का यो देश हमारा हम तुम सारे एक वतन भगतसिंह की चिठ्ठी

पंजाब का गांव 1925 में - छोटी सी फिल्म

1925 में बनी यह एक मूक और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म है. हालाँकि इसे ब्रिटिश इंस्ट्रक्शनल सीरीज के तहत अंग्रेज फिल्मकारों ने अपने दर्शकों को दिखाने के लिए बनाया था. इस फिल्म में उस दौर के पंजाब की एक झलक है. रहट, कोल्हू और हल को देखना तो आज की पीढ़ी के लिए एक अजूबे की तरह है. 

बुधवार, 19 सितंबर 2012

बाबा तोतापुरी : कैथल का अद्वैत दार्शनिक और रामकृष्ण परमहंस का गुरु,

 
      

हरियाणा और  कैथल  शिक्षा, ज्ञान और दर्शन का विशेष केन्द्र रहें हैं. लोगों को यह यकीन नहीं होगा कि कैथल के बाबा लदाना गाँव में उन्नीसवीं  सदी में एक ऐसा दार्शनिक पैदा हुआ जिसके बारे में  बीसवीं सदी में  विश्व  के महानतम  दार्शिनिकों  में से एक , रोमा रोलां  ने बड़े सम्मान के साथ अपने विचार रखे . यह दार्शनिक थे बाबा लदाना के तोतपुरी . वे अद्वैत  दर्शन के महानिर्वाणी अखाड़े के  नागा पंथ से ताल्लुक रखते थे. उन्होंने लदाना के ही बाबा राजपुरी मठ से शिक्षा पाई थी. 1858 में वे डेरा के मुखिया बने .  भौतिक जगत और माया  को नकार कर वे अंतिम सत्य  की खोज में लगे थे.  अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशते उन्होंने वस्त्र भी त्याग दिए जिससे जन के बीच वे नंगता बाबा के नाम से जाने गए. 1861 में सत्य की खोज में  यायावरी करते वे मठ से  निकल पड़े . शास्त्रार्थ करते वे कलकत्ता पहुंचे जहां 1864 में  उनकी  मुलाक़ात सत्य को तलाशते एक और  बेचैन संत  से हुई . वे थे  स्वामी विवेकानंद  के गुरु राम कृष्ण परमहंस .  रोमा रोलां ने कहा है कि  इस मुलाकात ने राम कृष्ण की दार्शनिक सोच को आकार देने में और  जीवन की दिशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की . बाबा तोतापुरी ने  काली की भक्ति में  आसक्त राम कृष्ण को अद्वैत दर्शन के अपने प्रश्नों से झिंझोड़ कर रख दिया. साकार ब्रह्म और काली की भक्ति से वे ध्यान नही हटा पा रहे थे . बाबा तोतापुरी ने परमहंस को द्वैत का रास्ता छोड़ अद्वैत का रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित किया. आत्मसाधना और चिंतन के बाद  उन्होंने अद्वैत दर्शन को अपनाया . वे तोतापुरी के शिष्य बन गए. आध्यात्मिक इतिहास में गुरु और शिष्य की यह मुलाक़ात  अनोखी मानी जाती है क्योंकि जहां शिष्य ने गुरु से अद्वैत दर्शन सीखा तो  गुरु ने अपने  शिष्य से अटूट भक्ति सीखी. दोनों ने परस्पर एक दूसरे से सीखा तो एक दूसरे को दिया भी.
    इस घटना से यह तो साबित होता ही है कि कैथल शहर और इसके आसपास का इलाका एक समय में ज्ञान  और दर्शन के क्षेत्र में बेहद उन्नत था. और यह सब तभी संभव हो पाया क्योंकि कैथल सदियों से  शिक्षा , ज्ञान , दर्शन और संस्कृति का केन्द्र रहा है. यही हमारी धरोहर और विरासत है. हमें इसे जानना है और समझना है  और इसे  संजो कर रखना है.

हाल हाळी का

कात्तिक बदी अमावस थी और दिन था खास दीवाळी का 
-आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

कितै बणैं थी खीर, कितै हलवे की खुशबू ऊठ रही 
-हाळी की बहू एक कूण मैं खड़ी बाजरा कूट रही ।

हाळी नै ली खाट बिछा, वा पैत्याँ कानी तैं टूट रही
-भर कै हुक्का बैठ गया वो, चिलम तळे तैं फूट रही ॥

चाकी धोरै जर लाग्या डंडूक पड़्या एक फाहळी का
-आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

सारे पड़ौसी बाळकाँ खातिर खील-खेलणे ल्यावैं थे
-दो बाळक बैठे हाळी के उनकी ओड़ लखावैं थे ।

बची रात की जळी खीचड़ी घोळ सीत मैं खावैं थे
-मगन हुए दो कुत्ते बैठे साहमी कान हलावैं थे ॥

एक बखोरा तीन कटोरे, काम नहीं था थाळी का
-आंख्यां कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

दोनूँ बाळक खील-खेलणाँ का करकै विश्वास गये
-माँ धोरै बिल पेश करया, वे ले-कै पूरी आस गये ।

माँ बोली बाप के जी नै रोवो, जिसके जाए नास गए
-फिर माता की बाणी सुण वे झट बाबू कै पास गए ।

तुरत ऊठ-कै बाहर लिकड़ ग्या पति गौहाने आळी का
-आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

ऊठ उड़े तैं बणिये कै गया, बिन दामाँ सौदा ना थ्याया
-भूखी हालत देख जाट की, हुक्का तक बी ना प्याया !

देख चढी करड़ाई सिर पै, दुखिया का मन घबराया
-छोड गाम नै चल्या गया वो, फेर बाहवड़ कै ना आया ।

कहै नरसिंह थारा बाग उजड़-ग्या भेद चल्या ना माळी का ।
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥


(साथी विक्रम प्रताप द्वारा प्रेषित दिल को छू लेने वाली हरियाणवी कविता)

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

ऐ हुस्न हकीकी - नूर - ए - असल


              ऐ हुस्न हकीकी - नूर - ए - असल
                                      ---अरीब अजहर   
 कौन कहता है कि हिन्दुस्तानी उपमहाद्वीप से गंगा जामुनी तहजीब खत्म हो  गई है... पाकिस्तान के नागमानिगार और गायक अरीब अजहर गाते हैं
            ऐ हुस्न - हकीकी नूर असल
            तनु बादल बरखा  दाज  कहूँ
            तनु आब कहूँ तनु ख़ाक कहूँ
            तनु दसरत लिछमन राम कहूँ
            तनु किसन कन्हैया कान कहूँ
            तनु ब्रह्मा किशन गणेश  कहूँ  
            महादेव कहूँ भगवान कहूँ
            तनु नूह कहूँ तूफ़ान कहूँ  
            तनु  इब्राहिम खलील कहूँ
            तनु मूसा बिन इमरान कहूँ  
            तनु सुर्खी बीड़ा पान कहूँ
            तनु तबला तय तम्बूर कहूँ
            तनु  ढोलक सुर तय  तान कहूँ

    यह गीत, यह शायरी हिंदू की है या  मुसलमान की ? यह शायरी हिन्दुस्तान की है या  पाकिस्तान की? इसे हम कैसे बाँट सकते हैं ? यहाँ तो कृष्ण - कन्हैया , मूसा, इब्राहिम से लेकर गीत - संगीत और सबसे बड़ी बात मिली जुली तहजीब में रचा-पगा इंसान तक सांझा है .  भक्ति, सूफी , इश्क , मोहब्बत में डूबा , अल्लाह, मूसा, राम और कन्हैया से गुफ्तगू  करता,  अनहद की ऊंचाइयों तक पहुंचाता पेश है  अरीब अजहर  का यह नगमा कैथलनामा की ओर से ---   
( सौजन्य : कोक स्टूडियो )