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मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

सुनिए फरहत साहब की आवाज़


फरहत शहजाद की शायरी और मेहंदी साहब की मौसिकी दोनों के मिलन ने अदब और तहजीब को एक अलग ही ऊंचाई तक पहुंचाया .पेश है आपके लिए चाँद गज़लें...


                                  तुम्हारे साथ भी तनहा हूँ....
              {सुनने के लिए विडिओ के बीच में बने तीर के निशाँ को क्लिक करें}

रविवार, 16 दिसंबर 2012

कैथल की सरज़मीन का एक सिलसिला



                  उजाला इसकदर बेनूर क्यों है   
           किताबें ज़िन्दगी से दूर क्यों हैं

ये कहना है उर्दू के अज़ीम शायर जनाब फरहत शहजाद का. फरहत साहब जो समकालीन उर्दू शायरी का एक ऐसा नाम है जिसकी शायरी को भारतीय उपमहाद्वीप के सभी फनकारों ने अपनी आवाज़ दी है. इनकी पहली ग़ज़ल मेहंदी हसन साहब ने गाई और उनकी ही गज़ल मेहंदी साहब की आखिरी ग़ज़ल बनी. यही फरहत साहब अपनी जड़ों को तलाशते कल कैथल में थे. इनके वालिद तकसीम के समय पाकिस्तान के डेरा गाजी खान चले गए थे जहां फरहत साहब का जन्म हुआ.
     फरहत साहब यूं तो पिछले 35 सालों से अमरीका में हैं, लेकिन उनकी रूह यहीं गंगा-सतलुज और सिन्धु के मैदानों में मंडराती रहती है. साल के पांच-छह महीने वे यहीं गुजारते हैं. अपने पुरखों की सरज़मीन को देखने, उसे सिजदा करने, उसे छूने और महसूस करने की चाह उन्हें कैथल ले आयी और कल वे अपने अज़ीज़ दोस्तों जनाब दिनेश यादव और तरुण वर्मा के साथ अपने वालिद और अपनी अम्मी के घर गए . वक़्त ने हांलाकि मंज़र बदल दिया है, हवेली के आसपास बाज़ार उग आया है, फिर भी फरहत साहब को वहा की गलियों, वहाँ की हवा, पेड़ों, घरों, इधर-उधर डोलते पिल्लों और यहाँ तक की नालियों को देख कर महसूस हुआ जैसे वो अपने घर, अपने अब्बा के घर आये हैं ....अपनी अम्मी के घर.........आये हैं .....
   वे उस मस्जिद में भी गए जहां कभी उनके अब्बा जाया करते थे. आसपास के बाशिंदों से बात कर जैसे उनकी रूह को सुकून सा मिला.
   शाम को शहर के बाशिंदों ने उनका इस्तकबाल किया. कोयल काम्प्लेक्स में तकसीम(विभाजन) के समय उजड़ कर कैथल आये लोग उनकी एक झलक लेना चाहते थे....प्राध्यापक, दुकानदार, सरकारी मुलाजिम भी जिनके परिवार उधर से आये थे और जिन्हें अपने ज़मीन की खुशबू लेकर आये फरहत साहब को सिजदा करना था, वहां मौजूद थे.
       आये हुए लोगों की मुहब्बत फरहत साहब की आँखों को नम कर गयी. उन्होंने कहा की इतिहास में जो कुछ घट चूका है उसे हम बदल नहीं सकते....लेकिन हम आने वाले समय को बेहतर बना सकते हैं. दोनों मुल्कों का माजी (अतीत) एक रहा है, दोनों की आबो-हवा एक है, तहजीब एक है.....और लोग एक हैं जो अमन और शान्ति चाहते हैं. उन्होंने कहा की कुछ ही लोग हैं जो बुरा चाहते हैं, बाकी अवाम तो हमेशा बेहतरी चाहती है. हमें अवाम पर भरोसा करना चाहिए. दोनों मुल्कों के अमनपरस्त साहित्यकारों,  फिल्मकारों, फनकारों और पढ़े-लिखे लोगों की सांझी कोशिश से ही मुहब्बत को कायम रखा जा सकता है.
    
       कार्यक्रम के दौरान गंगा-जमुनी संस्कृति की बेहतरीन मिसाल देखने को मिली. मुल्तान से आकर बसे अजीम शायर राणा प्रताव गंनौरी साहब ने मुल्तानी में नज्में पढ़ीं. वो अभी भी अपनी माँ-बोली को जिंदा रखे हुए हैं. तो दूसरी तरफ फरहत साहब ने भी ठेठ हरियाणवी में किस्से सुनाये. यहाँ डेरा गाजी खान के दो बेटे भी पहली बार आपस में मिले, एक फरहत साहब तो दूसरे कैथल के जानेमाने साहित्यकार डा. अमृत लाल मदान. मदान साहब और उनकी पत्नी का परिवार विभाजन के समय डेरा गाजी खान से यहाँ आकर बसा था.
    फरहत साहब ने बताया की उनकी पत्नी हिन्दुस्तान से हैं. और वे जल्दी ही देवनागरी पढ़ना और लिखना सीखने जा रहें हैं ताकि वे हिंदी रचनाकारों को भी पढ़ सकें. फरहत साहब न जाने कितनों की ख्वाहिशें बन कर यहाँ आये थे. उनके मार्फ़त न जाने कितने लोगों ने अपनी ज़मीन को सिजदा किया. न जाने वे कितनों के दिलों में अपनी ज़मीन को बस एक बार देखने की ख्वाहिशें जगा गए. उनके अब्बा ने उनसे कहा था, फरहत, मुझे हज पर भले ही न ले जाना, पर एक बार कैथल ज़रूर दिखा देना. अब्बा की ख्वाहिश तो सियासी दांव-पेंचों मे उलझ कर रह गयीं पर फरहत साहब को ज़रूर सुकून मिला होगा. और हम सब उन्हें देख कर कृतार्थ हुए.......


         

रविवार, 30 सितंबर 2012

कैथलनामा और संभव का भगत सिंह को सलाम


                      28 सितम्बर, यानि भगत सिंह . भगत सिंह यानि हिन्दुस्तान का सबसे अज़ीम बेटा... इस बेटे का जन्मदिन हिन्दुस्तान भर में मनाया गया और आज ही खबर मिली कि पाकिस्तान में भी जहां लाहौर में पुरानी लाहौर जेल थी, जहाँ भगत सिंह को फांसी दी गई थी, उस जगह को  “भगत सिंह चौक” का नाम देकर उनकी शहादत को सलाम किया गया. 27 सितम्बर से ही देश के गाँवों, कस्बों, शहरों, स्कूलों, और सामाजिक संगठनों के द्वारा भगत सिंह के विचारों और जज्बों को याद करते हुए पढ़े – लिखे और गाँव के धुर अनपढ़ लोगों ने भी भगत सिंह को याद किया.
   हमने भी “संभव’ और “प्रेमचंद पुस्तकालय” की ओर से कैथल के गाँव तितरम में 26  से लेकर 30 सितम्बर तक बिलकुल अलग – अलग तरह के कार्यक्रम किये.
       26 सितम्बर को “संभव” के कार्यकर्ताओं, समर्थकों और चाहने वालों ने भगत सिंह की पूरी विचार यात्रा और काम करने के तरीकों में समय के साथ आये बदलावों पर बातचीत की . हमने जानने की कोशिश की कि आखिर देश के प्रति मोहब्बत का वो कौन सा जज्बा था जिसने अट्ठारह- उन्नीस साल के एक नौजवान को चुपचाप अपने पिता को एक ख़त लिख कर अपना घर – बार छोड़ देश के लिए कुर्बान होने के लिए प्रेरित किया. “नौजवान भारत सभा” “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” और  “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी” के गठन और भगत सिंह के विचारों के क्रमशः साफ़ होते जाने, असेम्बली में बम फेंकने और फांसी के लिए जिद करने के पीछे उनके तर्कों पर हमने चर्चा की. हमने पाया की देश, समाज, राजनीति, भाषा, साम्प्रदायिकता, धर्म, साहित्य, नौजवानियत, मोहब्बत, रूमानियत और न जाने क्या - क्या....शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर भगत सिंह ने सोचा और लिखा ना हो. बातचीत में लोगो ने जोर दिया कि आज हर गाँव क्या बल्कि हर इंसान को भगत सिंह बनने की ज़रुरत है क्योंकि आज भी वे समस्याएँ, शोषण और भेद- भाव मौजूद हैं जिन्हें भगत सिंह ख़त्म करना चाहते थे. कार्यक्रम में भगत सिंह के कुछ लेख भी पढ़े गए और आंगनवाडी यूनियन लीडर संतरों ने भगत सिंह पर एक रागिनी सुनायी.
       हमें लगा कि छोटे-छोटे  भगत सिंह पैदा करने का एक तरीका यह हो सकता है कि, हम अपने आसपास के बच्चों से भगत सिंह के बारे में बातें करें. आखिर जलियाँ वाला बाग़ की मिट्टी उठाकर गोरी सरकार को उखाड़ फेंकने की कसम खाने वाला एक नन्हां भगत ही तो था.....हमने तितरम के ‘प्रेमचंद पुस्तकालय” में गाँव के बच्चों को बातचीत और देशभक्ति के गीत गाने के लिए आमंत्रित किया. हमे लगा था कि गवैया किस्म के थोड़े से बच्चे आ जायेंगे . लेकिन यहाँ तो लाइब्रेरी का हॉल खचाखच भर गया. हॉल भर गया तो कई खिडकियों पर लटक गए . कुछ ने दरवाजों में पिरामिडनुमा दर्शक – दीर्घा ही बना डाली तो कुछ मेजों पर ही चढ़ गए....बच्चों का ऐसा सुहाना कोलाहल की  मन झूम उठा . दो साल की  बच्ची से लेकर पंद्रह साल के बच्चे तक.... कुछ नौजवान अपने आप ही इस बाल- तूफ़ान को अनुशासित करने और उन्हें बैठाने में लग गए. सब गाने को तैयार....किसे गंवाएं और किसे न... खैर, सबने मिलकर भी गाया और जो ख़ास तैयारी कर के आये थे उन्हें ख़ास मौक़ा भी दिया गया. उन्हें भगत सिंह की कहानी भी सुनायी गई.
     इस कार्यक्रम के दौरान हमे लगा कि शहर की तुलना में गाँवों के बच्चे भगत सिंह के बारे में ज़्यादा जानते हैं... शायद इसमें गाँव के पुरानी परम्परा के आदर्शवादी मास्टरों का योगदान है.
       हमें लगा कि निश्छल और उत्साही बच्चों में ही देश के लिए मोहब्बत का जज्बा भरना शुरू कर देना चाहिए. उन्हें हम अपने हिसाब से ढाल सकते हैं. एक बेहतर इंसान बना सकते हैं. खेल, गीत, फिल्म, कहानियों, नाटक या फिर बाल - कार्यशालाओं के ज़रिये बिना दबाव डाले उनमें वैज्ञानिक समझ और विचार विकसित किये जा सकते हैं.
         इसी क्रम में हमने तीसरा कार्यक्रम 30 सितम्बर को तितरम की दलित बस्ती में किया. कितने शर्म की बात है कि इंसान और गाँव “अगड़े” और “पिछड़े” में बंटे हुए हैं. हर गाँव में एक “दक्खिन टोला” होता है जैसे अंग्रेजों के समय “व्हाइट टाउन” और “ब्लैक टाउन” हुआ करते थे. ब्लैक टाउन  तो गंदगी भरे, भीडभाड़ वाले और उपेक्षित होते थे...दलित बस्ती, यानि दक्खिन टोले भी ऐसे ही होते हैं. यहाँ उपेक्षित, सदियों से दबाये गए, भेदभाव के शिकार, कम पढ़े लिखे बेरोजगार किस्म के लोग रहते हैं जो छोटा मोटा काम कर लेते हैं. लेकिन हमने पाया कि ये अपनी बेटियों से मोहब्बत करतें हैं. लेकिन गरीबी ,पिछड़ेपन और अशिक्षा के कारण उन्हें पढ़ा नहीं पाते. तितरम और ‘संभव” के हमारे कार्यक्रमों में भी उनकी भागीदारी सामाजिक ताने-बाने के कारण सीमित ही रही है. इसी दूरी को पाटने के लिए हमने 30 सितम्बर को इस बस्ती में एक बैठक की जिसमें  ऎसी लड़कियों को पढ़ाने की योजना बनाई जिन्होंने गरीबी या किन्हीं और वजहों से अपनी पढाई छोड़ दी है. हमारी सभा में बीच में ही पढाई छोड़ चुके forced  बेरोजगार भी अपनी पहलकदमी से आ गए.
        इस कार्यक्रम के दौरान हमें लगा की हर तरफ एक बेचैनी , एक खालीपन , एक कसमसाहट और गुस्सा है. बस ज़रुरत है उसे एक सही दिशा और  एक सही रास्ता देने की . कालजयी नायकों की प्रेरणा से नए नायक – नायिकाएं पैदा करने की. हमारा यही प्रयास रहा है. यही है हमारा तरीका भगत सिंह के प्रति हमारी मोहब्बत  दीवानगी दिखाने और उन्हें सलाम करने का....
 (कार्यक्रम का एलबम हम जल्दी ही पोस्ट करेंगे )

बुधवार, 19 सितंबर 2012

बाबा तोतापुरी : कैथल का अद्वैत दार्शनिक और रामकृष्ण परमहंस का गुरु,

 
      

हरियाणा और  कैथल  शिक्षा, ज्ञान और दर्शन का विशेष केन्द्र रहें हैं. लोगों को यह यकीन नहीं होगा कि कैथल के बाबा लदाना गाँव में उन्नीसवीं  सदी में एक ऐसा दार्शनिक पैदा हुआ जिसके बारे में  बीसवीं सदी में  विश्व  के महानतम  दार्शिनिकों  में से एक , रोमा रोलां  ने बड़े सम्मान के साथ अपने विचार रखे . यह दार्शनिक थे बाबा लदाना के तोतपुरी . वे अद्वैत  दर्शन के महानिर्वाणी अखाड़े के  नागा पंथ से ताल्लुक रखते थे. उन्होंने लदाना के ही बाबा राजपुरी मठ से शिक्षा पाई थी. 1858 में वे डेरा के मुखिया बने .  भौतिक जगत और माया  को नकार कर वे अंतिम सत्य  की खोज में लगे थे.  अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशते उन्होंने वस्त्र भी त्याग दिए जिससे जन के बीच वे नंगता बाबा के नाम से जाने गए. 1861 में सत्य की खोज में  यायावरी करते वे मठ से  निकल पड़े . शास्त्रार्थ करते वे कलकत्ता पहुंचे जहां 1864 में  उनकी  मुलाक़ात सत्य को तलाशते एक और  बेचैन संत  से हुई . वे थे  स्वामी विवेकानंद  के गुरु राम कृष्ण परमहंस .  रोमा रोलां ने कहा है कि  इस मुलाकात ने राम कृष्ण की दार्शनिक सोच को आकार देने में और  जीवन की दिशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की . बाबा तोतापुरी ने  काली की भक्ति में  आसक्त राम कृष्ण को अद्वैत दर्शन के अपने प्रश्नों से झिंझोड़ कर रख दिया. साकार ब्रह्म और काली की भक्ति से वे ध्यान नही हटा पा रहे थे . बाबा तोतापुरी ने परमहंस को द्वैत का रास्ता छोड़ अद्वैत का रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित किया. आत्मसाधना और चिंतन के बाद  उन्होंने अद्वैत दर्शन को अपनाया . वे तोतापुरी के शिष्य बन गए. आध्यात्मिक इतिहास में गुरु और शिष्य की यह मुलाक़ात  अनोखी मानी जाती है क्योंकि जहां शिष्य ने गुरु से अद्वैत दर्शन सीखा तो  गुरु ने अपने  शिष्य से अटूट भक्ति सीखी. दोनों ने परस्पर एक दूसरे से सीखा तो एक दूसरे को दिया भी.
    इस घटना से यह तो साबित होता ही है कि कैथल शहर और इसके आसपास का इलाका एक समय में ज्ञान  और दर्शन के क्षेत्र में बेहद उन्नत था. और यह सब तभी संभव हो पाया क्योंकि कैथल सदियों से  शिक्षा , ज्ञान , दर्शन और संस्कृति का केन्द्र रहा है. यही हमारी धरोहर और विरासत है. हमें इसे जानना है और समझना है  और इसे  संजो कर रखना है.

सोमवार, 17 सितंबर 2012

एक बेबाक शायर : हाली पानीपती

हिन्दुस्तानी तहजीब की तरह हरियाणा की तहजीब और परम्परा भी हमेशा से बहुलतावादी रही है. लेकिन पिछले कुछ समय से तहजीब और संस्कृति को खास चश्मों से देखने की रवायत चल पड़ी है. तारीख भुलाई जाती रही है और गंगा -जमुना संस्कृति की तो बात करना भी वक्त जाया करना माना जाता है. ऐसे में “कैथलनामा” की बराबर यह कोशिश रहेगी कि हरियाणा और विशेषकर कैथल के सांझे इतिहास को याद किया जाए, उसे घर-घर पहुंचाया जाये और एक सांस्कृतिक आंदोलन की शरुआत की जाये . मीर, ग़ालिब , जौक उन्नीसवीं सदी के हिन्दोस्तान के चमकते शायर थे . उनमें एक शायर और भी था जिसका अंदाज़े बयान कुछ अलग ही था. अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती , इनकी काबिलियत को ग़ालिब ने भी स्वीकारा और कहा , “हालांकि मैं किसी को शायरी करने की इजाज़त नहीं देता , लेकिन तुम्हारे बारे में मेरा कहना है कि तुम शेर नहीं कहोगे तो तो अपने दिल पर भारी अत्याचार करोगे.” अल्ताफ हुसैन हाली, पानीपत, हरियाणा के रहने वाले थे, और अपने ज़माने के तल्ख़ हालातों पर बेबाक शायरी करने की वजह से “हाली” कहलाये, जिसे बाद में उन्होंने अपना तखल्लुस बना लिया . हाली ने शराब और शबाब से इतर अपनी शायरी को अपने समय के कड़वे सच से नवाजा . उनका समय (1837--1914) हिन्दोस्तान के लिए बेतरह उथल-पुथल भरा समय था. एक तरफ बर्तानियाई हुकूमत , तो दूसरी तरफ हिंदू- मुसलमान में बांटा जाता आवाम. वे फटकारते हैं इस आवाम को –
 तुम अगर चाहते हो मुल्क की खैर
 न किसी हम वतन को समझो गैर
 हो मुसलमान उसमें या हिंदू
 बौद्ध मज़हब हो या के हो बरहमू
सबको मीठी निगाह से देखो समझो
आँखों की पुतलियाँ सबको
 अपने मुल्क के लिए बेपनाह मोहब्बत ही हाली को मुल्क की लगातार होती जा रही बर्बादी पर सोचने के लिए परेशान करती रही. वे सोचते रहे और लिखते रहे कि उसे और – और खूबसूरत कैसे बनाया जाए. वे धन के लालच में किसी सुलतान की खिदमत में अपनी मिट्टी छोड़ कहीं और जाने के बजाय अपनी मिट्टी में मिल जाने की ख्वाहिश रखते थे—
 तेरी एक मुश्ते ख़ाक के बदले
 लूं न हरगिज़ अगर बहिश्त मिले
 हाली ऐसे शायर नहीं थे कि जब दिल्ली और पूरा मुल्क 1857 की ग़दर में धधक रहा हो, वे हुस्न की शायरी करें. नहीं, बल्कि दिल्ली और आवाम की बर्बादी से वे हिल गए और उनकी कलम ने लिखा—
 तज़किरा देहली – ए—मरहूम का अय दोस्त न छेड़
 न सुना जाएगा हम से यह फसाना हर्गिज़
 मिट गए तेरे मिटाने के निशाँ भी अब तो
 अय फलक इससे ज़्यादा न मिटाना हर्गिज़
 मेहनतकशों की मेहनत को सलाम करते हुए उनकी लूट पर वे जो लिखते हैं वह आज की ग्लोबल अर्थव्यवस्था में कामगारों की मेहनत की लूट पर भी बिल्कुल सटीक बैठता है—
 नौकरी ठहरी है ले दे के अब औकात अपनी
 पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
 अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
 जा पड़ी गैर के हाथों में हर एक बात अपनी
 हाथ अपने दिले आज़ाद से हम खो बैठे
 एक दौलत थी हमारी सो उसे खो बैठे
 अपने समय के दर्द को बेहद सरल और खूबसूरत ढंग पेश करने के साथ ही हाली पानीपती को सबसे ज़्यादा जिस बात के लिए सलाम किया जाना चाहिए वह है औरतों का मसला. यकीन नहीं होता कि आज से डेढ़ सौ साल पहले एक शायर इतनी संजीदगी से औरतों की ज़िंदगी को, उनके दर्द को, उनकी गुलामी को , देख और महसूस कर रहा था.
 ज़िंदा सदा जलती रहीं तुम मुर्दा ख्वाहिशों के साथ
 और चैन से आलम रहा ये सब तमाशे देखता
 ब्याहाँ तुम्हें या बाप ने ऐ बे ज़बानों इस तरह
 जैसे किसी तकसीर पर मुजरिम को देते हैं सज़ा
 ताज्जुब होता है कि इतने सालों पहले वे औरत - मर्द की बराबरी की बात करते हैं... .................
 शौहर हूँ उस में या पिदर ,या हूँ बिरादर या पिसर
 जब तक जियो तुम इल्मो दानिश से रहो महरूम यां
 आयी हो जैसी बे खबर वैसी ही जाओ बे खबर
 जो इल्म मर्दों के लिए समझा गया आबे हयात
 ठहरा तुम्हारे हक में वो ज़हरे हलाहिल सर बसर
 उन्होंने औरतों के प्रति ज़ुल्म और आखिरकार उनकी जीत का हौसला दिलाया. हाली ने हमेशा औरतों को सलाम किया और कहा---
 ऐ माओं , बहनों , बेटियों , दुनिया की जीनत तुमसे है
 मुल्कों की बस्ती हो तुम्हीं, कौमों की इज्ज़त तुमसे है
 तुम हो तो ग़ुरबत है वतन ,
तुम बिन है वीराना चमन हो देस या परदेस जीने की हलावत तुम से है
 मोनिस हो खाविन्दों की तुम , गम ख्वार फ़र जन्दों की तुम
 तुम बिन है घर वीरान सब , घर भर की बरकत तुम से है
 तुम आस हो बीमार की , उसरत में इशरत तुम से ............

. था पालना औलाद का मर्दों के बूते से सिवा
 आखिर ये ऐ दुखियारों ! खिदमत तुम्हारे सर पड़ी ...............

 अक्सर तुम्हारे कत्ल पर
 कौमों ने बांधी है कमर
 दें ताके तुम को यक क़लम,
 खुद लोहे हस्ती से मिटा गाड़ी गई तुम
 मुद्दतों मिट्टी में जीती जागती
 हामी तुम्हारा था मगर कोई नं जुज़ जाते खुदा

 ये तो कुछ आधी-अधूरी नज्में हैं.पूरी की पूरी यहाँ देना संभव नहीं है. हाली अपने समय के अफ़सानागार थे जिन्होंने शायरी में अपनी बात कही .समाज में मौजूद ऊंच – नीच , भेदभाव, कट्टरपन, अतार्किकता, सभी पर बेहद सरल भाषा में चोट की .महात्मा गांधी तक उनसे प्रभावित होकर उनसे कहते हैं, ”अगर हिन्दुस्तानी ज़ुबान का कोई नमूना पेश किया जा सकता है तो वो मौलाना हाली की नज़्म “मुनाजाते बेवा” का है .” हाली ने इतना कुछ लिखा कि उसे एक दिन में बयान कर देना गुस्ताखी होगी .आने वाले समय में हम कैथलनामा के मार्फ़त हाली पानीपती की और भी नज्में और उनकी ज़िंदगी से जुड़े वाक्यों से आपको रू-ब-रू कराते रहेंगे. उम्मीद है एक बेहद बड़े शायर पर बेहद मामूली सा हमारा यह प्रयास आपको पसंद आएगा और आप अपने सुझावों के द्वारा इसे बेहतर बनायेंगे. (आभार –डा.सुभाष चन्द्र एवं राम मोहन राय की पुस्तक “नवजागरण के अग्रदूत अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती ,चुनिन्दा नज्मे और गजलें” के आधार पर )

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कितने कैथल ?

कैथल सिर्फ किसी एक भौगोलिक इकाई का नाम नहीं है. दुनिया में जगह-जगह कैथल हैं और हर कैथल में जगह-जगह अलग दुनिया है. हर कैथल की पीड़ा सांझी है. हर पीड़ा का कैथल साँझा है. सियासतें, घटनाएँ और तारीख लोगों को उजाड़ कर भले ही एक जगह से दूसरी जगह पर धकेल दें पर लोगों की यादों, तहजीब, खान-पान, रवायतों और बोलियों को क्या कभी वे बदल पाएं हैं? कागज पर नक्शा खींच कर सरहद के ‘इधर’ और ‘उधर’ पहुंचा दिए गए लोग जिस मिट्टी में पले-बढे हों और वहीं-कहीं तोतली जबान को बोलते हुए भाषा सीखी हो, जहाँ का गीत-संगीत, मुहावरे, गालियाँ और..और भी न जाने क्या-क्या अपने खून में रचाया बसाया हो उस मिट्टी की महक को भला कौन सियासत मिटा सकी है, मिटा पायेगी? सपनो, खुशियों और स्यापों के साये मजबूती से उनका दामन पकड़े साथ-साथ चलते हैं ताउम्र.... तकसीम के समय गहरी पीड़ा, आंसूओं और छलनी हो चुके दिलों के साथ लाखों लोग इधर से उधर या उधर से इधर भेज दिए गए लेकिन उनकी माँ बोली उनके साथ बनी रही. अपनी जुबान, तहजीब और अपनी मिट्टी की यादों को संजो कर रखने वाले लोग सरहद के दोनों ओर हैं. ऐसे ही लोगों से तहजीब बची रहती ओर बिखरती जाती है ओर आने वाली पीढियां उसे थामे रहती हैं. तकसीम के वक्त हरियाणा से पाकिस्तान गए लोंगो ने आज भी अपनी मा.बोली हरियाणवी को जिन्दा रखा है और इधर राणा प्रताप गन्नौरी जैसी शख्सियतों ने अपनी माँ-बोली मुलतानी में ढेरों नज्में लिख कर अपनी मिट्टी की महक को जिंदा रखा है. सांझी विरासत की ऐसी मिसालों से ही अमन की मशालें रोशन हैं. देखिये ये दोनों वीडियो...

बुधवार, 12 सितंबर 2012

हरियाणवी वाद्य-वृन्द

धरती का कोई भी आबाद इलाका ऐसा नही होगा जहां लोगों ने खूबसूरत संस्कृति को जन्म न दिया हो. हज़ारों सालों में “लोक” ने गीत – संगीत, कला - चित्रकला , नाटक – नौटंकी - सांग मुहावरों, लोकोक्तियों , किस्से-कहानियों या फिर त्योहारों को जन्म दिया है. हरियाणा की भी अपनी खेतिहर ज़मीन से उपजी समृद्ध संस्कृति और परम्परा रही है, पर “सांस्कृतिक एलीट” ने हमेशा यह कहा कि There is only one culture in Haryana and that is Agriculture. हरियाणा के एक शख्स पिछले पच्चीस सालों से इस सोच को गलत साबित करने के अभियान में लगे हैं. जी हाँ, वह शख्सियत हैं अनूप लाठर. अनूप लाठर हरियाणा के लिए कोई अनजान व्यक्ति नहीं हैं. हरियाणा में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ज़रूरत को महसूस करते हुए उन्होंने 1985 में “रत्नावली” नाम से कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में एक सालाना लोक सांस्कृतिक जलसा शुरू किया . मात्र दो लोक विधाओं के आयोजन से शुरू हुए इस जलसे में प्रस्तुत विधाओं की संख्या आज बढ़ कर पच्चीस हो गयी है और यह सबसे ज्यादा इंतज़ार किये जाना वाला सांस्कृतिक उत्सव बन चुका है. कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के युवा और सांस्कृतिक विभाग में अध्यक्ष श्री लाठर के प्रयास से लोकप्रिय लोक शैलियों का तो रत्नावली महोत्सव में आयोजन होता ही रहा है, लुप्त होने की कगार पर पहुँच चुकी सांस्कृतिक शैलियों को पुनर्जीवित कर अधिक महत्वपूर्ण काम किया गया. उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने इन शैलियों को उस युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय बना दिया जो अक्सर फिल्मी संस्कृति के पीछे भागती है . रत्नावली महोत्सव में शामिल होने के लिए तमाम कलाकार साल भर अपनी कला को मांजते हैं. इसे सीखने के लिए वे पारंगत बुजुर्ग कलाकारों के शागिर्द बनते हैं. इस तरह दोनों पीढियां वास्तव में मिल के हरियाणा की लोक संस्कृति को बचा रहीं हैं जिन्हें श्री लाठर का नेतृत्व प्राप्त है. कैथल में बलजीत सिंह और उनकी टोली अनूप लाठर के काम को आगे बढ़ा रही है.आर.के.एस.डी. कॉलेज की ऑर्केस्ट्रा टीम एक बेहतरीन टीम है जो विभिन्न हरियाणवी साजों को बजाने में माहिर हैं. घड्वा ,ढफ, मंजीरा, ढोलक, एकतारा, दोतारा, नगाड़ा, बैंजो, ताशा , चिमटा जैसे साजों को जब यह मंडली समवेत स्वर में बजाती है तो एक अलग ही समां बन जाता है. पढ़े - लिखे नौजवानों को लोक साज़ बजाते देख दिल को एक सुकून भी मिलता है कि अनूप लाठर जी का प्रयास बेकार नहीं जा रहा है. प्रस्तुत है अनूप लाठर द्वारा निर्देशित हरियाणवी वाद्य-वृन्द की बेजोड़ प्रस्तुति: हरियाणा की लोक संस्कृति को नौजवान पीढ़ी ज़रूर बचा लेगी. अनूप लाठर को सलाम करते हुए आपके लिए प्रस्तुत है हरियाणवी वाद्य वृन्द जो रत्नावली महोत्सव के लिए अनूप लाठर के निर्देशन में तैयार किया गया :

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

ममता सौदा-आसमान छूने को बेताब बेटी कैथल की


सात महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटी को फतह करने का ख्वाब देखने वाली ममता सौदा, कैथल की बेटी हैं. कैथल, जहां पहाडियां तो दूर की बात है ऊंचाई के नाम पर कुछ पुराने टीले मौजूद हैं या फिर कुछ तलाई बाज़ार की ऊँची-नीची सड़क या थोड़ी ऊँचाई पर बसा पुराना कैथल शहर,एक ऐसा शहर जहां पर्वतारोहण का कोई इतिहास नहीं मौजूद है, ममता सौदा एक के बाद एक लगातार चोटियाँ फतह करती जा रहीं हैं. ममता ने 22 मई, 2012 को विश्व की सबसे ऊंची चोटी, माउन्ट एवेरेस्ट फतह कर अपने अभियान की शुरुआत की थी. उसके पहले वह कई और ऊँचाईयों को भी फतह कर चुकी थीं. 20 जून 2012 को अफ्रीका के किलिमंजारो चोटी को उन्होंने फतह किया. इसी माह, एक सितम्बर को रूस की सबसे ऊंची चोटी माउन्ट एल्ब्रस पर उन्होंने झंडा फहराया. अपने शहर में लौटने पर ममता का ज़ोरदार स्वागत किया गया.*
 ममता ने साबित कर दिया है कि लड़कियां शारीरिक रूप से कमजोर नहीं होतीं. लड़कियों को अगर सही खान – पान मिले, सही प्रशिक्षण एवं मार्गदर्शन मिले, उनके परिवार और समाज का समर्थन मिले और सबसे बड़ी बात की उनपर भरोसा किया जाए, तो वे आसमान भी छू सकती हैं. पर्वतारोहण जैसे बेहद कठिन, अत्यधिक शारीरिक मेहनत वाले, निहायत धैर्य और जोखिम भरे कैरियर में तीन चोटियाँ फतह करने के बाद, भी ममता का हौसला बुलंद है. हरियाणा जैसे राज्य जहां बेटियों की भयंकर दुर्दशा है, ममता हम सबके लिए रोशनी बन कर आयी हैं. बाज़ार और पूंजी के सेवक जब लड़कियों को “मिस वर्ल्ड” बनने के सपने दिखा रहें हैं, ऐसे में ममता लड़कियों और हम सबके लिए बेहतरीन आदर्श हैं. माउंट एल्ब्रेस फतह कर लौटने पर “कैथलनामा” ममता, और उनके परिवार को सलाम करता है और भविष्य के लिए शुभकामनाएं देता है.

* (बॉक्स न्यूज़-दैनिक भास्कर के सौजन्य से )

फरहत शहजाद का कैथल

सिरजन की आखिरी शाम को संस्कृतिकर्मी मित्र एवं वर्तमान में अतिरिक्त उपायुक्त, कैथल दिनेश सिंह यादव ने अपने कुछ संस्मरण साँझे किये. जाने-माने शायर फरहत शहजाद के पूर्वज मूलतः कैथल से थे और विभाजन के समय उनका परिवार पाकिस्तान चला गया था. कुछ साल पहले फरहत अपने सखा दिनेश के साथ अपने पुरखों की मिट्टी को सजदा करने आये थे. जब दिनेश ने फरहत से पूछा कि आपको यहाँ आकर कैसा लग रहा है तो फरहत का जवाब था कि मुझे ऐसा लग रहा है मानों मैंने अपने अब्बू को हज करा दिया है. उल्लेखनीय है कि फरहत शहजाद की शायरी को मेहंदी हसन सहित कई कलाकारों ने अपनी आवाज दी है. हाल ही में हुई एक बातचीत में फरहत ने बताया कि जैसे ही मौका मिला वे एक बार फिर इस शहर में आना चाहेंगे. कैथल को फरहत की प्रतीक्षा है. सुनिए दिनेश सिंह यादव के संस्मरण और थोड़ी सी शायरी...

सोमवार, 10 सितंबर 2012

दूधिया क्रांति के जनक डा. वर्गीस कुरियन को कैथलनामा का सलाम




देसां में देस हरियाणा जित दूध – दही का खाणा .यह देस दूधिया क्रान्ति यानि श्वेत क्रान्ति के जनक, डा. वर्गीज़ कुरियन को श्रद्धांजलि देता है, उन्हें सलाम करता है. भारत जैसा देश में जहां ‘दूध की नदियां” गुज़रे अतीत की बात बन चुकी थी, डा. कुरियन ने उसे काफी हद तक फिर से हकीकत बनाया. कुरियन जो खुद दूध नहीं पीते थे, केरल के रहने वाले थे, 1949 में गुजरात के “खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ” के महाप्रबंधक बने. वे मात्र एक प्रशासक नहीं थे, बल्कि स्वप्नदर्शी थे .पशुपालन जैसे पारंपरिक काम को उन्होंने उद्योग का रूप दिया. उसे एक आंदोलन का रूप दिया. उन्होंने सान्झेपन पर आधारित एक ऐसे सहकारी आंदोलान को जन्म दिया जिसने गुजरात के आणंद जिले का रूप ही बदल दिया. जिसने हज़ारों- हज़ार औरतो का जीवन बदल दिया. जिसने विकास और उन्नति छन कर नीचे तक कैसे जाती है, इसे कर दिखाया. कुरियन ने 1955 में अमूल ब्रांड को बाज़ार अर्थव्यवस्था से जोड़ कर दुग्ध-प्रोडक्ट को पूरे देश में पहुंचा दिया. उनके ही प्रयास से दुनिया में पहली बार भैंस और गाय के दूध से पाउडर बनाया गया. तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे गए कुरियन किसी पुरस्कार के मोहताज़ नहीं थे. सहकारी आंदोलन से जुडी औरतों और रोज़गार पाए लाखों लोगों के खुशी से दमकते चेहरे और मुस्कान ही उनके वास्तविक पुरस्कार थे. मंथन फिल्म में इसे बेहतरीन ढंग से दिखाया गया है. डा कुरियन को याद करते हुए बराबर यह ख़याल आता है कि हम हरियाणा जैसे इलाके में ऐसा कोई सहकारी आंदोलन क्यों नही शुरू कर पाए. ऐसा प्रदेश जहां पशुपालन और दुग्ध – उद्योग सदियों पुराना पेशा रहा है, जहां घर-घर में पशु हैं, जहां हज़ारों औरतें दुग्ध – उत्पादन में लगी हैं , सहकार का रूप देते ही उन्हें रोज़गार मिल सकेगा और उनके श्रम का सही आर्थिक आकलन भी होगा. यहाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने पैर पसार रहीं हैं जबकि सहकार - आंदोलन के ज़रिये पूरे इलाके में समृद्धि लायी जा सकती है. यहाँ करनाल में राष्ट्रीय डेरी इंस्टिट्यूट है. आश्चर्य होता है की आज तक किसी ने कोई पहल क्यों नही की? भारत दुनिया में सबसे अधिक दूध उत्पादन करने वाला देश है .फिर भी यहाँ बड़े तो क्या बच्चों तक को दूध क्यों नहीं मिल पाता ? वर्गीज़ को सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि इस इलाके को डा. वर्गीज़ के सपनों से और भी आगे ले जाया जाए. जहाँ न सिर्फ हरियाणा में बल्कि पूरे देश के बच्चों को दूध मयस्सर हो सके.. डा.आशु वर्मा