रविवार, 30 सितंबर 2012

कैथलनामा और संभव का भगत सिंह को सलाम


                      28 सितम्बर, यानि भगत सिंह . भगत सिंह यानि हिन्दुस्तान का सबसे अज़ीम बेटा... इस बेटे का जन्मदिन हिन्दुस्तान भर में मनाया गया और आज ही खबर मिली कि पाकिस्तान में भी जहां लाहौर में पुरानी लाहौर जेल थी, जहाँ भगत सिंह को फांसी दी गई थी, उस जगह को  “भगत सिंह चौक” का नाम देकर उनकी शहादत को सलाम किया गया. 27 सितम्बर से ही देश के गाँवों, कस्बों, शहरों, स्कूलों, और सामाजिक संगठनों के द्वारा भगत सिंह के विचारों और जज्बों को याद करते हुए पढ़े – लिखे और गाँव के धुर अनपढ़ लोगों ने भी भगत सिंह को याद किया.
   हमने भी “संभव’ और “प्रेमचंद पुस्तकालय” की ओर से कैथल के गाँव तितरम में 26  से लेकर 30 सितम्बर तक बिलकुल अलग – अलग तरह के कार्यक्रम किये.
       26 सितम्बर को “संभव” के कार्यकर्ताओं, समर्थकों और चाहने वालों ने भगत सिंह की पूरी विचार यात्रा और काम करने के तरीकों में समय के साथ आये बदलावों पर बातचीत की . हमने जानने की कोशिश की कि आखिर देश के प्रति मोहब्बत का वो कौन सा जज्बा था जिसने अट्ठारह- उन्नीस साल के एक नौजवान को चुपचाप अपने पिता को एक ख़त लिख कर अपना घर – बार छोड़ देश के लिए कुर्बान होने के लिए प्रेरित किया. “नौजवान भारत सभा” “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” और  “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी” के गठन और भगत सिंह के विचारों के क्रमशः साफ़ होते जाने, असेम्बली में बम फेंकने और फांसी के लिए जिद करने के पीछे उनके तर्कों पर हमने चर्चा की. हमने पाया की देश, समाज, राजनीति, भाषा, साम्प्रदायिकता, धर्म, साहित्य, नौजवानियत, मोहब्बत, रूमानियत और न जाने क्या - क्या....शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर भगत सिंह ने सोचा और लिखा ना हो. बातचीत में लोगो ने जोर दिया कि आज हर गाँव क्या बल्कि हर इंसान को भगत सिंह बनने की ज़रुरत है क्योंकि आज भी वे समस्याएँ, शोषण और भेद- भाव मौजूद हैं जिन्हें भगत सिंह ख़त्म करना चाहते थे. कार्यक्रम में भगत सिंह के कुछ लेख भी पढ़े गए और आंगनवाडी यूनियन लीडर संतरों ने भगत सिंह पर एक रागिनी सुनायी.
       हमें लगा कि छोटे-छोटे  भगत सिंह पैदा करने का एक तरीका यह हो सकता है कि, हम अपने आसपास के बच्चों से भगत सिंह के बारे में बातें करें. आखिर जलियाँ वाला बाग़ की मिट्टी उठाकर गोरी सरकार को उखाड़ फेंकने की कसम खाने वाला एक नन्हां भगत ही तो था.....हमने तितरम के ‘प्रेमचंद पुस्तकालय” में गाँव के बच्चों को बातचीत और देशभक्ति के गीत गाने के लिए आमंत्रित किया. हमे लगा था कि गवैया किस्म के थोड़े से बच्चे आ जायेंगे . लेकिन यहाँ तो लाइब्रेरी का हॉल खचाखच भर गया. हॉल भर गया तो कई खिडकियों पर लटक गए . कुछ ने दरवाजों में पिरामिडनुमा दर्शक – दीर्घा ही बना डाली तो कुछ मेजों पर ही चढ़ गए....बच्चों का ऐसा सुहाना कोलाहल की  मन झूम उठा . दो साल की  बच्ची से लेकर पंद्रह साल के बच्चे तक.... कुछ नौजवान अपने आप ही इस बाल- तूफ़ान को अनुशासित करने और उन्हें बैठाने में लग गए. सब गाने को तैयार....किसे गंवाएं और किसे न... खैर, सबने मिलकर भी गाया और जो ख़ास तैयारी कर के आये थे उन्हें ख़ास मौक़ा भी दिया गया. उन्हें भगत सिंह की कहानी भी सुनायी गई.
     इस कार्यक्रम के दौरान हमे लगा कि शहर की तुलना में गाँवों के बच्चे भगत सिंह के बारे में ज़्यादा जानते हैं... शायद इसमें गाँव के पुरानी परम्परा के आदर्शवादी मास्टरों का योगदान है.
       हमें लगा कि निश्छल और उत्साही बच्चों में ही देश के लिए मोहब्बत का जज्बा भरना शुरू कर देना चाहिए. उन्हें हम अपने हिसाब से ढाल सकते हैं. एक बेहतर इंसान बना सकते हैं. खेल, गीत, फिल्म, कहानियों, नाटक या फिर बाल - कार्यशालाओं के ज़रिये बिना दबाव डाले उनमें वैज्ञानिक समझ और विचार विकसित किये जा सकते हैं.
         इसी क्रम में हमने तीसरा कार्यक्रम 30 सितम्बर को तितरम की दलित बस्ती में किया. कितने शर्म की बात है कि इंसान और गाँव “अगड़े” और “पिछड़े” में बंटे हुए हैं. हर गाँव में एक “दक्खिन टोला” होता है जैसे अंग्रेजों के समय “व्हाइट टाउन” और “ब्लैक टाउन” हुआ करते थे. ब्लैक टाउन  तो गंदगी भरे, भीडभाड़ वाले और उपेक्षित होते थे...दलित बस्ती, यानि दक्खिन टोले भी ऐसे ही होते हैं. यहाँ उपेक्षित, सदियों से दबाये गए, भेदभाव के शिकार, कम पढ़े लिखे बेरोजगार किस्म के लोग रहते हैं जो छोटा मोटा काम कर लेते हैं. लेकिन हमने पाया कि ये अपनी बेटियों से मोहब्बत करतें हैं. लेकिन गरीबी ,पिछड़ेपन और अशिक्षा के कारण उन्हें पढ़ा नहीं पाते. तितरम और ‘संभव” के हमारे कार्यक्रमों में भी उनकी भागीदारी सामाजिक ताने-बाने के कारण सीमित ही रही है. इसी दूरी को पाटने के लिए हमने 30 सितम्बर को इस बस्ती में एक बैठक की जिसमें  ऎसी लड़कियों को पढ़ाने की योजना बनाई जिन्होंने गरीबी या किन्हीं और वजहों से अपनी पढाई छोड़ दी है. हमारी सभा में बीच में ही पढाई छोड़ चुके forced  बेरोजगार भी अपनी पहलकदमी से आ गए.
        इस कार्यक्रम के दौरान हमें लगा की हर तरफ एक बेचैनी , एक खालीपन , एक कसमसाहट और गुस्सा है. बस ज़रुरत है उसे एक सही दिशा और  एक सही रास्ता देने की . कालजयी नायकों की प्रेरणा से नए नायक – नायिकाएं पैदा करने की. हमारा यही प्रयास रहा है. यही है हमारा तरीका भगत सिंह के प्रति हमारी मोहब्बत  दीवानगी दिखाने और उन्हें सलाम करने का....
 (कार्यक्रम का एलबम हम जल्दी ही पोस्ट करेंगे )

बुधवार, 26 सितंबर 2012

किस्सा भगत सिंह-(ऑडियो)-हरियाणवी-भाग चार (अंतिम)

प्रस्तुत है भगत सिंह के किस्से की अंतिम कड़ी.(भगत सिंह - जन्मदिन 27 सितम्बर पर विशेष) शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशान होगा.इन्कलाब जिंदाबाद. भगत सिंह ने मन्ने मिला दो तन का करदे ढेर इस कारण कुनबा सारा सौ सौ पड़े मुसीबत तेरी रजा में रजा

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

किस्सा भगत सिंह (ऑडियो)- हरियाणवी -भाग तीन

पूत तेरे ने मारण भगत सिंह की चिट्ठी

टेंडर डेंगू का......



     काफी समय से अखबारों में कैथल जिले में फैले डेंगू , जापानी बुखार और मलेरिया से मरने वालों की ख़बरें आ रहीं हैं. जिले में संदिग्ध बुखार से अब तक दो लोगों की मौत हो  चुकी है. जब कैथल जिले में जपानी बुखार की टेस्टिंग सुविधा है ही नही तो कैसे कहा जा सकता है कि जिले में और भी जो मौतें  हुई हैं वह जापानी बुखार से नहीं हुई हैं... आखिर कितने लोग शहर आकर अपना इलाज करा पाते  हैं ? कितने आश्चर्य की बात है की मच्छरों से निजात पाने के लिए फॉगिंग में इस्तेमाल होने वाली दवा तक का इंतजाम नही हो पाया है...क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि किसी तरह अपने परिवार का गुजर बसर करने वाले लोग महंगे होते इस समय में  रोज हिट जैसी मच्छर मार दवाइयों को खरीद पाते हैं ? पिछले साल इन बीमारियों  से लगभग एक दर्जन मौतें हुई थीं. यह तो सिर्फ सरकारी आंकड़ा है.... सच पता नहीं क्या हो...एक साल में जनता ने अपने खून-पसीने की गाढ़ी कमाई का पता नहीं कितना हिस्सा सरकार को दिया है....पिछले एक साल में कुछ लोगों के खातों में जमा राशि में शून्य की संख्या इतनी बढ़ गयी है की उन्हें गिनने में आम आदमी का दिमाग गड्डमड्ड होने लगता है. देश में धन की कमी नहीं है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ये मामूली सुविधाएँ भी लोगों को नहीं मिल पा रहीं हैं. बेरोजगारों की फ़ौज के बावजूद  आदमी की जान से जुड़े इतने महत्वपूर्ण महकमे में कर्मचारियों की संख्या  इतनी कम है की योजनाओं को ठीक से अंजाम भी नहीं दिया जा पाता. अधिकारियों का कहना है कि इस साल डेंगू और जापानी बुखार के मच्छरों को मारने के लिए फॉगिंग में इस्तेमाल होने वाली दवाओं का टेंडर ही देर से हुआ...क्या ही अच्छा होता की ये अधिकारी टेंडर में विलम्ब की सूचना यमदूत को भी भेज देते ताकि वे असमय मौत देने के पाप के भागीदार तो नहीं बनते.
          डेंगू और जापानी बुखार पिछले सात - आठ से सुनी जाने वाली बीमारियाँ हैं...ये नए ज़माने की , बदलते आर्थिक - सामाजिक परिवेश की , नए किस्म के औद्योगिक कचरे के कारण पनपने वाली और सरकारों के बेगाने होते जाने वाले वक़्त की बीमारियाँ हैं.... इनसे सामूहिक और सार्वजनिक तौर पर ही निबटा जा सकता है. संवेदनशील सरकारें ही इनसे निपट सकती हैं.    

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

किस्सा भगत सिंह (ऑडियो) हरियाणवी-भाग दो

प्रस्तुत है भगत सिंह के हरियाणवी किस्से का अगला भाग ना मान्या धड़का यो देश हमारा हम तुम सारे एक वतन भगतसिंह की चिठ्ठी

पंजाब का गांव 1925 में - छोटी सी फिल्म

1925 में बनी यह एक मूक और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म है. हालाँकि इसे ब्रिटिश इंस्ट्रक्शनल सीरीज के तहत अंग्रेज फिल्मकारों ने अपने दर्शकों को दिखाने के लिए बनाया था. इस फिल्म में उस दौर के पंजाब की एक झलक है. रहट, कोल्हू और हल को देखना तो आज की पीढ़ी के लिए एक अजूबे की तरह है. 

बुधवार, 19 सितंबर 2012

बाबा तोतापुरी : कैथल का अद्वैत दार्शनिक और रामकृष्ण परमहंस का गुरु,

 
      

हरियाणा और  कैथल  शिक्षा, ज्ञान और दर्शन का विशेष केन्द्र रहें हैं. लोगों को यह यकीन नहीं होगा कि कैथल के बाबा लदाना गाँव में उन्नीसवीं  सदी में एक ऐसा दार्शनिक पैदा हुआ जिसके बारे में  बीसवीं सदी में  विश्व  के महानतम  दार्शिनिकों  में से एक , रोमा रोलां  ने बड़े सम्मान के साथ अपने विचार रखे . यह दार्शनिक थे बाबा लदाना के तोतपुरी . वे अद्वैत  दर्शन के महानिर्वाणी अखाड़े के  नागा पंथ से ताल्लुक रखते थे. उन्होंने लदाना के ही बाबा राजपुरी मठ से शिक्षा पाई थी. 1858 में वे डेरा के मुखिया बने .  भौतिक जगत और माया  को नकार कर वे अंतिम सत्य  की खोज में लगे थे.  अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशते उन्होंने वस्त्र भी त्याग दिए जिससे जन के बीच वे नंगता बाबा के नाम से जाने गए. 1861 में सत्य की खोज में  यायावरी करते वे मठ से  निकल पड़े . शास्त्रार्थ करते वे कलकत्ता पहुंचे जहां 1864 में  उनकी  मुलाक़ात सत्य को तलाशते एक और  बेचैन संत  से हुई . वे थे  स्वामी विवेकानंद  के गुरु राम कृष्ण परमहंस .  रोमा रोलां ने कहा है कि  इस मुलाकात ने राम कृष्ण की दार्शनिक सोच को आकार देने में और  जीवन की दिशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की . बाबा तोतापुरी ने  काली की भक्ति में  आसक्त राम कृष्ण को अद्वैत दर्शन के अपने प्रश्नों से झिंझोड़ कर रख दिया. साकार ब्रह्म और काली की भक्ति से वे ध्यान नही हटा पा रहे थे . बाबा तोतापुरी ने परमहंस को द्वैत का रास्ता छोड़ अद्वैत का रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित किया. आत्मसाधना और चिंतन के बाद  उन्होंने अद्वैत दर्शन को अपनाया . वे तोतापुरी के शिष्य बन गए. आध्यात्मिक इतिहास में गुरु और शिष्य की यह मुलाक़ात  अनोखी मानी जाती है क्योंकि जहां शिष्य ने गुरु से अद्वैत दर्शन सीखा तो  गुरु ने अपने  शिष्य से अटूट भक्ति सीखी. दोनों ने परस्पर एक दूसरे से सीखा तो एक दूसरे को दिया भी.
    इस घटना से यह तो साबित होता ही है कि कैथल शहर और इसके आसपास का इलाका एक समय में ज्ञान  और दर्शन के क्षेत्र में बेहद उन्नत था. और यह सब तभी संभव हो पाया क्योंकि कैथल सदियों से  शिक्षा , ज्ञान , दर्शन और संस्कृति का केन्द्र रहा है. यही हमारी धरोहर और विरासत है. हमें इसे जानना है और समझना है  और इसे  संजो कर रखना है.

हाल हाळी का

कात्तिक बदी अमावस थी और दिन था खास दीवाळी का 
-आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

कितै बणैं थी खीर, कितै हलवे की खुशबू ऊठ रही 
-हाळी की बहू एक कूण मैं खड़ी बाजरा कूट रही ।

हाळी नै ली खाट बिछा, वा पैत्याँ कानी तैं टूट रही
-भर कै हुक्का बैठ गया वो, चिलम तळे तैं फूट रही ॥

चाकी धोरै जर लाग्या डंडूक पड़्या एक फाहळी का
-आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

सारे पड़ौसी बाळकाँ खातिर खील-खेलणे ल्यावैं थे
-दो बाळक बैठे हाळी के उनकी ओड़ लखावैं थे ।

बची रात की जळी खीचड़ी घोळ सीत मैं खावैं थे
-मगन हुए दो कुत्ते बैठे साहमी कान हलावैं थे ॥

एक बखोरा तीन कटोरे, काम नहीं था थाळी का
-आंख्यां कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

दोनूँ बाळक खील-खेलणाँ का करकै विश्वास गये
-माँ धोरै बिल पेश करया, वे ले-कै पूरी आस गये ।

माँ बोली बाप के जी नै रोवो, जिसके जाए नास गए
-फिर माता की बाणी सुण वे झट बाबू कै पास गए ।

तुरत ऊठ-कै बाहर लिकड़ ग्या पति गौहाने आळी का
-आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

ऊठ उड़े तैं बणिये कै गया, बिन दामाँ सौदा ना थ्याया
-भूखी हालत देख जाट की, हुक्का तक बी ना प्याया !

देख चढी करड़ाई सिर पै, दुखिया का मन घबराया
-छोड गाम नै चल्या गया वो, फेर बाहवड़ कै ना आया ।

कहै नरसिंह थारा बाग उजड़-ग्या भेद चल्या ना माळी का ।
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥


(साथी विक्रम प्रताप द्वारा प्रेषित दिल को छू लेने वाली हरियाणवी कविता)

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

ऐ हुस्न हकीकी - नूर - ए - असल


              ऐ हुस्न हकीकी - नूर - ए - असल
                                      ---अरीब अजहर   
 कौन कहता है कि हिन्दुस्तानी उपमहाद्वीप से गंगा जामुनी तहजीब खत्म हो  गई है... पाकिस्तान के नागमानिगार और गायक अरीब अजहर गाते हैं
            ऐ हुस्न - हकीकी नूर असल
            तनु बादल बरखा  दाज  कहूँ
            तनु आब कहूँ तनु ख़ाक कहूँ
            तनु दसरत लिछमन राम कहूँ
            तनु किसन कन्हैया कान कहूँ
            तनु ब्रह्मा किशन गणेश  कहूँ  
            महादेव कहूँ भगवान कहूँ
            तनु नूह कहूँ तूफ़ान कहूँ  
            तनु  इब्राहिम खलील कहूँ
            तनु मूसा बिन इमरान कहूँ  
            तनु सुर्खी बीड़ा पान कहूँ
            तनु तबला तय तम्बूर कहूँ
            तनु  ढोलक सुर तय  तान कहूँ

    यह गीत, यह शायरी हिंदू की है या  मुसलमान की ? यह शायरी हिन्दुस्तान की है या  पाकिस्तान की? इसे हम कैसे बाँट सकते हैं ? यहाँ तो कृष्ण - कन्हैया , मूसा, इब्राहिम से लेकर गीत - संगीत और सबसे बड़ी बात मिली जुली तहजीब में रचा-पगा इंसान तक सांझा है .  भक्ति, सूफी , इश्क , मोहब्बत में डूबा , अल्लाह, मूसा, राम और कन्हैया से गुफ्तगू  करता,  अनहद की ऊंचाइयों तक पहुंचाता पेश है  अरीब अजहर  का यह नगमा कैथलनामा की ओर से ---   
( सौजन्य : कोक स्टूडियो )
  

किस्सा भगत सिंह (ऑडियो) -भाग एक

हरियाणा में रागिणी की समृद्ध परंपरा है. धार्मिक किस्सों के अतिरिक्त अनेक गायकों ने शहीदों,लोकनायकों और स्वतंत्रता संग्राम के किस्सों को भी लिखा-गाया है. भगत सिंह का किस्सा भी हरियाणवी जनमानस में काफी लोकप्रिय रहा है. इस माह सत्ताइस सितम्बर को शहीद भगत सिंह का जन्मदिन है. अपने श्रोताओं व पाठकों के लिए भगत सिंह का किस्सा किश्तों में प्रकाशित करेंगे. इस किस्से को गाया है मास्टर सतबीर सिंह जी ने. (सुनने के लिए नीचे दिए गए लिंक्स के प्ले बटन पर क्लिक करें, अगर आपका कनेक्शन स्लो है तो बफर होने में थोड़ा समय लग सकता है कृपया प्रतीक्षा करें) (1)रोवन आला आपै जाणे (2)जोड़े हाथ खड़ा (3)भगत सिंह आजादी की हाँ (4)कुछ तो मेरे मन में थी

सोमवार, 17 सितंबर 2012

एक बेबाक शायर : हाली पानीपती

हिन्दुस्तानी तहजीब की तरह हरियाणा की तहजीब और परम्परा भी हमेशा से बहुलतावादी रही है. लेकिन पिछले कुछ समय से तहजीब और संस्कृति को खास चश्मों से देखने की रवायत चल पड़ी है. तारीख भुलाई जाती रही है और गंगा -जमुना संस्कृति की तो बात करना भी वक्त जाया करना माना जाता है. ऐसे में “कैथलनामा” की बराबर यह कोशिश रहेगी कि हरियाणा और विशेषकर कैथल के सांझे इतिहास को याद किया जाए, उसे घर-घर पहुंचाया जाये और एक सांस्कृतिक आंदोलन की शरुआत की जाये . मीर, ग़ालिब , जौक उन्नीसवीं सदी के हिन्दोस्तान के चमकते शायर थे . उनमें एक शायर और भी था जिसका अंदाज़े बयान कुछ अलग ही था. अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती , इनकी काबिलियत को ग़ालिब ने भी स्वीकारा और कहा , “हालांकि मैं किसी को शायरी करने की इजाज़त नहीं देता , लेकिन तुम्हारे बारे में मेरा कहना है कि तुम शेर नहीं कहोगे तो तो अपने दिल पर भारी अत्याचार करोगे.” अल्ताफ हुसैन हाली, पानीपत, हरियाणा के रहने वाले थे, और अपने ज़माने के तल्ख़ हालातों पर बेबाक शायरी करने की वजह से “हाली” कहलाये, जिसे बाद में उन्होंने अपना तखल्लुस बना लिया . हाली ने शराब और शबाब से इतर अपनी शायरी को अपने समय के कड़वे सच से नवाजा . उनका समय (1837--1914) हिन्दोस्तान के लिए बेतरह उथल-पुथल भरा समय था. एक तरफ बर्तानियाई हुकूमत , तो दूसरी तरफ हिंदू- मुसलमान में बांटा जाता आवाम. वे फटकारते हैं इस आवाम को –
 तुम अगर चाहते हो मुल्क की खैर
 न किसी हम वतन को समझो गैर
 हो मुसलमान उसमें या हिंदू
 बौद्ध मज़हब हो या के हो बरहमू
सबको मीठी निगाह से देखो समझो
आँखों की पुतलियाँ सबको
 अपने मुल्क के लिए बेपनाह मोहब्बत ही हाली को मुल्क की लगातार होती जा रही बर्बादी पर सोचने के लिए परेशान करती रही. वे सोचते रहे और लिखते रहे कि उसे और – और खूबसूरत कैसे बनाया जाए. वे धन के लालच में किसी सुलतान की खिदमत में अपनी मिट्टी छोड़ कहीं और जाने के बजाय अपनी मिट्टी में मिल जाने की ख्वाहिश रखते थे—
 तेरी एक मुश्ते ख़ाक के बदले
 लूं न हरगिज़ अगर बहिश्त मिले
 हाली ऐसे शायर नहीं थे कि जब दिल्ली और पूरा मुल्क 1857 की ग़दर में धधक रहा हो, वे हुस्न की शायरी करें. नहीं, बल्कि दिल्ली और आवाम की बर्बादी से वे हिल गए और उनकी कलम ने लिखा—
 तज़किरा देहली – ए—मरहूम का अय दोस्त न छेड़
 न सुना जाएगा हम से यह फसाना हर्गिज़
 मिट गए तेरे मिटाने के निशाँ भी अब तो
 अय फलक इससे ज़्यादा न मिटाना हर्गिज़
 मेहनतकशों की मेहनत को सलाम करते हुए उनकी लूट पर वे जो लिखते हैं वह आज की ग्लोबल अर्थव्यवस्था में कामगारों की मेहनत की लूट पर भी बिल्कुल सटीक बैठता है—
 नौकरी ठहरी है ले दे के अब औकात अपनी
 पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
 अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
 जा पड़ी गैर के हाथों में हर एक बात अपनी
 हाथ अपने दिले आज़ाद से हम खो बैठे
 एक दौलत थी हमारी सो उसे खो बैठे
 अपने समय के दर्द को बेहद सरल और खूबसूरत ढंग पेश करने के साथ ही हाली पानीपती को सबसे ज़्यादा जिस बात के लिए सलाम किया जाना चाहिए वह है औरतों का मसला. यकीन नहीं होता कि आज से डेढ़ सौ साल पहले एक शायर इतनी संजीदगी से औरतों की ज़िंदगी को, उनके दर्द को, उनकी गुलामी को , देख और महसूस कर रहा था.
 ज़िंदा सदा जलती रहीं तुम मुर्दा ख्वाहिशों के साथ
 और चैन से आलम रहा ये सब तमाशे देखता
 ब्याहाँ तुम्हें या बाप ने ऐ बे ज़बानों इस तरह
 जैसे किसी तकसीर पर मुजरिम को देते हैं सज़ा
 ताज्जुब होता है कि इतने सालों पहले वे औरत - मर्द की बराबरी की बात करते हैं... .................
 शौहर हूँ उस में या पिदर ,या हूँ बिरादर या पिसर
 जब तक जियो तुम इल्मो दानिश से रहो महरूम यां
 आयी हो जैसी बे खबर वैसी ही जाओ बे खबर
 जो इल्म मर्दों के लिए समझा गया आबे हयात
 ठहरा तुम्हारे हक में वो ज़हरे हलाहिल सर बसर
 उन्होंने औरतों के प्रति ज़ुल्म और आखिरकार उनकी जीत का हौसला दिलाया. हाली ने हमेशा औरतों को सलाम किया और कहा---
 ऐ माओं , बहनों , बेटियों , दुनिया की जीनत तुमसे है
 मुल्कों की बस्ती हो तुम्हीं, कौमों की इज्ज़त तुमसे है
 तुम हो तो ग़ुरबत है वतन ,
तुम बिन है वीराना चमन हो देस या परदेस जीने की हलावत तुम से है
 मोनिस हो खाविन्दों की तुम , गम ख्वार फ़र जन्दों की तुम
 तुम बिन है घर वीरान सब , घर भर की बरकत तुम से है
 तुम आस हो बीमार की , उसरत में इशरत तुम से ............

. था पालना औलाद का मर्दों के बूते से सिवा
 आखिर ये ऐ दुखियारों ! खिदमत तुम्हारे सर पड़ी ...............

 अक्सर तुम्हारे कत्ल पर
 कौमों ने बांधी है कमर
 दें ताके तुम को यक क़लम,
 खुद लोहे हस्ती से मिटा गाड़ी गई तुम
 मुद्दतों मिट्टी में जीती जागती
 हामी तुम्हारा था मगर कोई नं जुज़ जाते खुदा

 ये तो कुछ आधी-अधूरी नज्में हैं.पूरी की पूरी यहाँ देना संभव नहीं है. हाली अपने समय के अफ़सानागार थे जिन्होंने शायरी में अपनी बात कही .समाज में मौजूद ऊंच – नीच , भेदभाव, कट्टरपन, अतार्किकता, सभी पर बेहद सरल भाषा में चोट की .महात्मा गांधी तक उनसे प्रभावित होकर उनसे कहते हैं, ”अगर हिन्दुस्तानी ज़ुबान का कोई नमूना पेश किया जा सकता है तो वो मौलाना हाली की नज़्म “मुनाजाते बेवा” का है .” हाली ने इतना कुछ लिखा कि उसे एक दिन में बयान कर देना गुस्ताखी होगी .आने वाले समय में हम कैथलनामा के मार्फ़त हाली पानीपती की और भी नज्में और उनकी ज़िंदगी से जुड़े वाक्यों से आपको रू-ब-रू कराते रहेंगे. उम्मीद है एक बेहद बड़े शायर पर बेहद मामूली सा हमारा यह प्रयास आपको पसंद आएगा और आप अपने सुझावों के द्वारा इसे बेहतर बनायेंगे. (आभार –डा.सुभाष चन्द्र एवं राम मोहन राय की पुस्तक “नवजागरण के अग्रदूत अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती ,चुनिन्दा नज्मे और गजलें” के आधार पर )

शताब्दियों के गाए गीतों का अर्क है रागणी

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कितने कैथल ?

कैथल सिर्फ किसी एक भौगोलिक इकाई का नाम नहीं है. दुनिया में जगह-जगह कैथल हैं और हर कैथल में जगह-जगह अलग दुनिया है. हर कैथल की पीड़ा सांझी है. हर पीड़ा का कैथल साँझा है. सियासतें, घटनाएँ और तारीख लोगों को उजाड़ कर भले ही एक जगह से दूसरी जगह पर धकेल दें पर लोगों की यादों, तहजीब, खान-पान, रवायतों और बोलियों को क्या कभी वे बदल पाएं हैं? कागज पर नक्शा खींच कर सरहद के ‘इधर’ और ‘उधर’ पहुंचा दिए गए लोग जिस मिट्टी में पले-बढे हों और वहीं-कहीं तोतली जबान को बोलते हुए भाषा सीखी हो, जहाँ का गीत-संगीत, मुहावरे, गालियाँ और..और भी न जाने क्या-क्या अपने खून में रचाया बसाया हो उस मिट्टी की महक को भला कौन सियासत मिटा सकी है, मिटा पायेगी? सपनो, खुशियों और स्यापों के साये मजबूती से उनका दामन पकड़े साथ-साथ चलते हैं ताउम्र.... तकसीम के समय गहरी पीड़ा, आंसूओं और छलनी हो चुके दिलों के साथ लाखों लोग इधर से उधर या उधर से इधर भेज दिए गए लेकिन उनकी माँ बोली उनके साथ बनी रही. अपनी जुबान, तहजीब और अपनी मिट्टी की यादों को संजो कर रखने वाले लोग सरहद के दोनों ओर हैं. ऐसे ही लोगों से तहजीब बची रहती ओर बिखरती जाती है ओर आने वाली पीढियां उसे थामे रहती हैं. तकसीम के वक्त हरियाणा से पाकिस्तान गए लोंगो ने आज भी अपनी मा.बोली हरियाणवी को जिन्दा रखा है और इधर राणा प्रताप गन्नौरी जैसी शख्सियतों ने अपनी माँ-बोली मुलतानी में ढेरों नज्में लिख कर अपनी मिट्टी की महक को जिंदा रखा है. सांझी विरासत की ऐसी मिसालों से ही अमन की मशालें रोशन हैं. देखिये ये दोनों वीडियो...

अनपढ़ माणस समझे कोन्या

कैथलनामा के पाठकों-श्रोताओं के लिए आज प्रस्तुत है रागणी - अनपढ़ माणस समझे कोन्या. हमारा प्रयास रहेगा कि समय-समय पर हम आप सब के लिए हरियाणवी लोकसंगीत प्रस्तुत करते रहें. आपके सुझाव आमंत्रित हैं.

बुधवार, 12 सितंबर 2012

हरियाणवी वाद्य-वृन्द

धरती का कोई भी आबाद इलाका ऐसा नही होगा जहां लोगों ने खूबसूरत संस्कृति को जन्म न दिया हो. हज़ारों सालों में “लोक” ने गीत – संगीत, कला - चित्रकला , नाटक – नौटंकी - सांग मुहावरों, लोकोक्तियों , किस्से-कहानियों या फिर त्योहारों को जन्म दिया है. हरियाणा की भी अपनी खेतिहर ज़मीन से उपजी समृद्ध संस्कृति और परम्परा रही है, पर “सांस्कृतिक एलीट” ने हमेशा यह कहा कि There is only one culture in Haryana and that is Agriculture. हरियाणा के एक शख्स पिछले पच्चीस सालों से इस सोच को गलत साबित करने के अभियान में लगे हैं. जी हाँ, वह शख्सियत हैं अनूप लाठर. अनूप लाठर हरियाणा के लिए कोई अनजान व्यक्ति नहीं हैं. हरियाणा में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ज़रूरत को महसूस करते हुए उन्होंने 1985 में “रत्नावली” नाम से कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में एक सालाना लोक सांस्कृतिक जलसा शुरू किया . मात्र दो लोक विधाओं के आयोजन से शुरू हुए इस जलसे में प्रस्तुत विधाओं की संख्या आज बढ़ कर पच्चीस हो गयी है और यह सबसे ज्यादा इंतज़ार किये जाना वाला सांस्कृतिक उत्सव बन चुका है. कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के युवा और सांस्कृतिक विभाग में अध्यक्ष श्री लाठर के प्रयास से लोकप्रिय लोक शैलियों का तो रत्नावली महोत्सव में आयोजन होता ही रहा है, लुप्त होने की कगार पर पहुँच चुकी सांस्कृतिक शैलियों को पुनर्जीवित कर अधिक महत्वपूर्ण काम किया गया. उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने इन शैलियों को उस युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय बना दिया जो अक्सर फिल्मी संस्कृति के पीछे भागती है . रत्नावली महोत्सव में शामिल होने के लिए तमाम कलाकार साल भर अपनी कला को मांजते हैं. इसे सीखने के लिए वे पारंगत बुजुर्ग कलाकारों के शागिर्द बनते हैं. इस तरह दोनों पीढियां वास्तव में मिल के हरियाणा की लोक संस्कृति को बचा रहीं हैं जिन्हें श्री लाठर का नेतृत्व प्राप्त है. कैथल में बलजीत सिंह और उनकी टोली अनूप लाठर के काम को आगे बढ़ा रही है.आर.के.एस.डी. कॉलेज की ऑर्केस्ट्रा टीम एक बेहतरीन टीम है जो विभिन्न हरियाणवी साजों को बजाने में माहिर हैं. घड्वा ,ढफ, मंजीरा, ढोलक, एकतारा, दोतारा, नगाड़ा, बैंजो, ताशा , चिमटा जैसे साजों को जब यह मंडली समवेत स्वर में बजाती है तो एक अलग ही समां बन जाता है. पढ़े - लिखे नौजवानों को लोक साज़ बजाते देख दिल को एक सुकून भी मिलता है कि अनूप लाठर जी का प्रयास बेकार नहीं जा रहा है. प्रस्तुत है अनूप लाठर द्वारा निर्देशित हरियाणवी वाद्य-वृन्द की बेजोड़ प्रस्तुति: हरियाणा की लोक संस्कृति को नौजवान पीढ़ी ज़रूर बचा लेगी. अनूप लाठर को सलाम करते हुए आपके लिए प्रस्तुत है हरियाणवी वाद्य वृन्द जो रत्नावली महोत्सव के लिए अनूप लाठर के निर्देशन में तैयार किया गया :

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

ममता सौदा-आसमान छूने को बेताब बेटी कैथल की


सात महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटी को फतह करने का ख्वाब देखने वाली ममता सौदा, कैथल की बेटी हैं. कैथल, जहां पहाडियां तो दूर की बात है ऊंचाई के नाम पर कुछ पुराने टीले मौजूद हैं या फिर कुछ तलाई बाज़ार की ऊँची-नीची सड़क या थोड़ी ऊँचाई पर बसा पुराना कैथल शहर,एक ऐसा शहर जहां पर्वतारोहण का कोई इतिहास नहीं मौजूद है, ममता सौदा एक के बाद एक लगातार चोटियाँ फतह करती जा रहीं हैं. ममता ने 22 मई, 2012 को विश्व की सबसे ऊंची चोटी, माउन्ट एवेरेस्ट फतह कर अपने अभियान की शुरुआत की थी. उसके पहले वह कई और ऊँचाईयों को भी फतह कर चुकी थीं. 20 जून 2012 को अफ्रीका के किलिमंजारो चोटी को उन्होंने फतह किया. इसी माह, एक सितम्बर को रूस की सबसे ऊंची चोटी माउन्ट एल्ब्रस पर उन्होंने झंडा फहराया. अपने शहर में लौटने पर ममता का ज़ोरदार स्वागत किया गया.*
 ममता ने साबित कर दिया है कि लड़कियां शारीरिक रूप से कमजोर नहीं होतीं. लड़कियों को अगर सही खान – पान मिले, सही प्रशिक्षण एवं मार्गदर्शन मिले, उनके परिवार और समाज का समर्थन मिले और सबसे बड़ी बात की उनपर भरोसा किया जाए, तो वे आसमान भी छू सकती हैं. पर्वतारोहण जैसे बेहद कठिन, अत्यधिक शारीरिक मेहनत वाले, निहायत धैर्य और जोखिम भरे कैरियर में तीन चोटियाँ फतह करने के बाद, भी ममता का हौसला बुलंद है. हरियाणा जैसे राज्य जहां बेटियों की भयंकर दुर्दशा है, ममता हम सबके लिए रोशनी बन कर आयी हैं. बाज़ार और पूंजी के सेवक जब लड़कियों को “मिस वर्ल्ड” बनने के सपने दिखा रहें हैं, ऐसे में ममता लड़कियों और हम सबके लिए बेहतरीन आदर्श हैं. माउंट एल्ब्रेस फतह कर लौटने पर “कैथलनामा” ममता, और उनके परिवार को सलाम करता है और भविष्य के लिए शुभकामनाएं देता है.

* (बॉक्स न्यूज़-दैनिक भास्कर के सौजन्य से )

फरहत शहजाद का कैथल

सिरजन की आखिरी शाम को संस्कृतिकर्मी मित्र एवं वर्तमान में अतिरिक्त उपायुक्त, कैथल दिनेश सिंह यादव ने अपने कुछ संस्मरण साँझे किये. जाने-माने शायर फरहत शहजाद के पूर्वज मूलतः कैथल से थे और विभाजन के समय उनका परिवार पाकिस्तान चला गया था. कुछ साल पहले फरहत अपने सखा दिनेश के साथ अपने पुरखों की मिट्टी को सजदा करने आये थे. जब दिनेश ने फरहत से पूछा कि आपको यहाँ आकर कैसा लग रहा है तो फरहत का जवाब था कि मुझे ऐसा लग रहा है मानों मैंने अपने अब्बू को हज करा दिया है. उल्लेखनीय है कि फरहत शहजाद की शायरी को मेहंदी हसन सहित कई कलाकारों ने अपनी आवाज दी है. हाल ही में हुई एक बातचीत में फरहत ने बताया कि जैसे ही मौका मिला वे एक बार फिर इस शहर में आना चाहेंगे. कैथल को फरहत की प्रतीक्षा है. सुनिए दिनेश सिंह यादव के संस्मरण और थोड़ी सी शायरी...

सोमवार, 10 सितंबर 2012

दूधिया क्रांति के जनक डा. वर्गीस कुरियन को कैथलनामा का सलाम




देसां में देस हरियाणा जित दूध – दही का खाणा .यह देस दूधिया क्रान्ति यानि श्वेत क्रान्ति के जनक, डा. वर्गीज़ कुरियन को श्रद्धांजलि देता है, उन्हें सलाम करता है. भारत जैसा देश में जहां ‘दूध की नदियां” गुज़रे अतीत की बात बन चुकी थी, डा. कुरियन ने उसे काफी हद तक फिर से हकीकत बनाया. कुरियन जो खुद दूध नहीं पीते थे, केरल के रहने वाले थे, 1949 में गुजरात के “खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ” के महाप्रबंधक बने. वे मात्र एक प्रशासक नहीं थे, बल्कि स्वप्नदर्शी थे .पशुपालन जैसे पारंपरिक काम को उन्होंने उद्योग का रूप दिया. उसे एक आंदोलन का रूप दिया. उन्होंने सान्झेपन पर आधारित एक ऐसे सहकारी आंदोलान को जन्म दिया जिसने गुजरात के आणंद जिले का रूप ही बदल दिया. जिसने हज़ारों- हज़ार औरतो का जीवन बदल दिया. जिसने विकास और उन्नति छन कर नीचे तक कैसे जाती है, इसे कर दिखाया. कुरियन ने 1955 में अमूल ब्रांड को बाज़ार अर्थव्यवस्था से जोड़ कर दुग्ध-प्रोडक्ट को पूरे देश में पहुंचा दिया. उनके ही प्रयास से दुनिया में पहली बार भैंस और गाय के दूध से पाउडर बनाया गया. तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे गए कुरियन किसी पुरस्कार के मोहताज़ नहीं थे. सहकारी आंदोलन से जुडी औरतों और रोज़गार पाए लाखों लोगों के खुशी से दमकते चेहरे और मुस्कान ही उनके वास्तविक पुरस्कार थे. मंथन फिल्म में इसे बेहतरीन ढंग से दिखाया गया है. डा कुरियन को याद करते हुए बराबर यह ख़याल आता है कि हम हरियाणा जैसे इलाके में ऐसा कोई सहकारी आंदोलन क्यों नही शुरू कर पाए. ऐसा प्रदेश जहां पशुपालन और दुग्ध – उद्योग सदियों पुराना पेशा रहा है, जहां घर-घर में पशु हैं, जहां हज़ारों औरतें दुग्ध – उत्पादन में लगी हैं , सहकार का रूप देते ही उन्हें रोज़गार मिल सकेगा और उनके श्रम का सही आर्थिक आकलन भी होगा. यहाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने पैर पसार रहीं हैं जबकि सहकार - आंदोलन के ज़रिये पूरे इलाके में समृद्धि लायी जा सकती है. यहाँ करनाल में राष्ट्रीय डेरी इंस्टिट्यूट है. आश्चर्य होता है की आज तक किसी ने कोई पहल क्यों नही की? भारत दुनिया में सबसे अधिक दूध उत्पादन करने वाला देश है .फिर भी यहाँ बड़े तो क्या बच्चों तक को दूध क्यों नहीं मिल पाता ? वर्गीज़ को सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि इस इलाके को डा. वर्गीज़ के सपनों से और भी आगे ले जाया जाए. जहाँ न सिर्फ हरियाणा में बल्कि पूरे देश के बच्चों को दूध मयस्सर हो सके.. डा.आशु वर्मा

पंजाबी लोक गीत-किकली कलीर दी

इस दौड़ते-भागते मिक्सिंग और फ्यूजन के दौर में हमारे परंपरागत लोकगीत कहीं लुप्त होते जा रहें है. कैथलनामा का प्रयास रहेगा कि हमारी मिट्टी से जुड़े और लोकजीवन से उपजे गीतों, कविताओं, मुहावरों, पहेलियों को समय-समय पर अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जाये. इस कड़ी में आज सबसे पहले प्रस्तुत है ताहिरा सैयद की आवाज में पंजाबी लोकगीत किकली कलीर दी...(सुनने के लिए नीचे दिए गए लिंक के प्ले बटन पर क्लिक करें, अगर आपका कनेक्शन स्लो है तो बफर होने में कुछ क्षण लग सकते हैं, प्रतीक्षा करें)

खत प्रियतम के नाम

ख़त लिक्खा खुशखत के साथ, खैर, दुआ, चाहत के साथ । परदेसी प्रियतम के नाम लिखती हूं शिद्दत के साथ । कोई अच्छी खबर नहीं है तुम पढ़ना हिम्मत के साथ । माँ की हालत भी पतली है, बापू की हालत के साथ । देवर धुत्त पड़ा रहता है, जाएगा इस लत के साथ । डिग्री तो लाया है बड़का पढ़ लिख कर मेहनत के साथ । लेकिन अब मिलती हैं सबको नौकरियाँ रिश्वत के साथ । छुटका अब रहता है हरदम, आवारा दलपत के साथ । लाखों ऐब चले आते हैं, एक बुरी आदत के साथ । उसको तो खाना-पीना है, रोज़ बुरी संगत के साथ । मुनिया फस्ट रही बस्ती में, अट्ठासी प्रतिशत के साथ । सोचूं इसकी शादी कर दूँ, लड़का देख बखत के साथ । गली गली में खड़े लफंगे, देखें बदनीयत के साथ । कमला जैसे पगली हो गई, लगती हर हरकत के साथ । काली माँ का भूत था अन्दर, उतरा जो मन्नत के साथ । गंगाराम ने ब्याह दी बेटी, बूढ़े बदसूरत के साथ । रधिया कल कुएँ में कूदी लुटी हुई इज़्ज़त के साथ । बुधवा का सच कौन सुनेगा, हर मुखबर ताकत के साथ । आज इलैक्शन जीत गया फिर दुर्जन सिंह बहुमत के साथ । काले की बहु भाग गयी है, उस गोरे सम्पत के साथ । दयानन्द अब भी लड़ता है, मस्जिद के शौकत के साथ । हैं गठबन्धन की सरकारें, थोड़े से जनमत के साथ । अब तो बस ये क्रिकेट वाले, धन लूटें शौहरत के साथ । घर में मनीआर्डर नहीं आया, कब तक इस गुरबत के साथ । चंद दरारें दीवारों में, मुँह खोले हैं छत के साथ । घर की नीलामी का नोटिस आया है मुहलत के साथ । अब के फसल बहा गयी बारिश, कौन लड़े कुदरत के साथ । घर में लाख झमेले और मैं, लड़ती हर आफत के साथ । हाल पूछने कौन आएगा, सब रिश्ते दौलत के साथ । आवभगत भी न कर पायी, भाई का शरबत के साथ । कैसी हालत है मत पूछो, ज़िंदा हूँ ज़िल्लत के साथ । बिजली, दूध किराने का बिल, भेज रही हूँ खत के साथ । मैं तो मन्दिर में लड़ आई, पत्थर की मूरत के साथ । मर्द गया परदेस न जाने क्या बीती औरत के साथ । तुम मत लापरवाही करना अपनी इस सेहत के साथ । खर्च गुज़ारा कर ही लूंगी मैं ज्यादा बरकत के साथ । अब तो वापिस आ भी जाओ, रोटी है किस्मत के साथ । -गुलशन मदान* *गुलशन मदान कैथल के अत्यंत चर्चित कवि एवं गीतकार हैं

रविवार, 9 सितंबर 2012

कविताओं में कौंधती नाटक की अर्थछवियां

प्रो.अमृतलाल मदान - कैथल की जानी-मानी शख्सियत- कवि,नाटककार और इससे भी बढ़कर एक बेहद प्यारे इंसान. डा. मदान ने अपना पूरा जीवन साहित्य सृजन में लगाया है. वे सदैव साहित्य के नए अंकुरों को सींचते रहे हैं.  उनके संयोजन में होने वाली साहित्य सभा की मासिक गोष्ठियों ने  नए-नए रचनाकारों को साहित्यिक अभिव्यक्ति का मंच प्रदान किया है.  हाल ही में उनका नया कविता संग्रह 'बूँद-बूँद अहसास' आया था. प्रस्तुत है डा. सुभाष रस्तोगी द्वारा इस संग्रह की समीक्षा:

साहित्यकार अमृतलाल मदान कवि, कथाकार, उपन्यासकार और नाटककार के रूप में जाने-माने हैं। लेकिन उनके बारे में यह कहना काफी मुश्किल है कि वे मुख्यत: कवि हैं, कथाकार हैं अथवा नाटककार हैं। वैसे तो रचना कागज पर उतरने से पहले अपनी विधा का चुनाव स्वयं कर लेती है लेकिन फिर भी अमृतलाल मदान जैसा प्रत्येक रचनाकार जहाज के पंछी की तरह बार-बार अपनी मुख्य विधा में लौटता ही है। अमृतलाल मदान के सद्य: प्रकाशित कविता संग्रह ‘बूंद-बूंद अहसास’ जिसमें उनकी कुल 71 कविताएं संकलित हैं, की मार्फत यदि हम उनके रचनात्मक कर्म के परिदृश्य में झांकें तो मुख्यत: वे एक नाटककार के रूप में ही उभरकर सामने आते हैं क्योंकि उनकी कविताओं में बार-बार नाटक की अर्थछवियां कौंधती हैं। इन्हीं अर्थछवियों ने उनकी कविताओं को न केवल अद्भुत और अप्रतिम चित्रात्मकता प्रदान की है, बल्कि उनकी अर्थवत्ता को भी बढ़ा दिया है।
अमृतलाल मदान ने पटियाला के हार्ट इंस्टीच्यूट में मृत्यु शैया पर पड़े-पड़े खुद से वादा किया था कि यदि बच गया तो काव्य संग्रह छपवाकर पुनर्जन्म का उत्सव मनाऊंगा। यह काव्य संग्रह उनके खुद को ‘नायाब तोहफे’ के रूप में सामने आया है।
‘डा. अर्जुन-श्रीकृष्ण संवाद’, ‘कलंक’ और ‘मैं और मेरा साया’ संग्रह की कुछ ऐसी उल्लेखनीय कविताएं हैं जिनमें मदान का रंग-शिल्प अत्यंत मुखर हो उठा है तथा संग्रह की पहली कविता ‘डा. अर्जुन-श्रीकृष्ण संवाद’ अपनी बनावट और बुनावट में एक लघु काव्य नाटक का पूरा परिप्रेक्ष्य उपस्थित करती है। महाकाल की सत्ता के समक्ष मनुष्य की क्षण भंगुरता, लेकिन उसके अथक जीवट का रूपक रचती यह कविता मदान के रंग-शिल्प का एक आख्यान प्रतीत होती है।
‘चवन्नी बदनाम हुई’, ‘संकट रिश्तों की पार्किंग का’, ‘मेरे दो मित्र’, ‘तामस दूत’ तथा ‘बदलती हवाओं में’ कवि का केनवास अत्यंत व्यापक है, परंतु अपने कथन की वक्रता से मुख्यत: ये कविताएं जिस तरह से मानवीय रिश्तों में बाजार के दखल तथा बाजारीकरण के अभिशाप के कारण आदमी की बदलती फितरत के प्रति हमें चौकस करती हैं, वह कबिले गौर है -
‘दरअसल / बाजार का मुंह भी / सुरसा का मुंह है / हड़प जाता है उठ-उठकर / सभी चिल्लरों, छुट्टों, छुटभैयों को / पर चूमता है उड़-उड़ कर / समुद्र पार जाते / डालर-पौण्ड-येन / के भांडों, नक्कालों / बेसुरे नचैयों को।’ (पृ. 16)
‘हम रिफ्यूजी-एक’ व ‘हम रिफ्यूजी-दो’ पाठक की चेतना में इसलिए देर तक ठहरने वाली कविताएं हैं क्योंकि एक स्तर पर यह सवाल उठाती हैं कि विभाजन के संताप से दर-ब-दर हुए रिफ्यूजी न तो उग्रवादी बने, न चरमपंथी, न ही आतंकी, न आरक्षण मांगा और न ही धरने लगाये, लेकिन जो तीन-तीन पीढिय़ों से सुस्थापित हैं वे क्यों हथियार उठाते हैं? देखें ये पंक्तियां जो हमें अपने गिरेबान में झांकने का मौका देती हैं :
‘हम तो चलो विस्थापित सही, ‘रिफ्यूजी’ सही / पर जो पहले ही स्थापित हैं / वे क्यों हथियार उठाते हैं / आरक्षण मांगते हैं / रास्ते रोकते हैं / कैसी राजनीति खेलते हैं, चलाते हैं? / किसका शिकार बनते हैं? / किसको शिकार बनाते हैं?’ (पृ. 22)
इसी शृंखला की दूसरी कविता ‘हम रिफ्यूजी-दो’ संवेदना का एक दूसरा ही फलक उजागर करती है :
‘जब हुआ हमारा वतन निकाला / किसने मां की तरह संभाला / रक्षण किया बिना आरक्षण / किसने मुंह में दिया निवाला? / यह धरती थी हरियाणा की / सीधे सादे लोग लुगाई / ऐसा लगा ज्यों हम बिछुड़ों को / आकर मिले सहोदर भाई।’ (पृ. 114)
‘बिल्ली के बच्चे’, ‘बच्चो याद बहुत आते हो’, ‘आओ बच्चो घर आओ’ माता-पिता के अकेलेपन की अन्तव्र्यथा को उजागर करती हैं तो ‘रसोई को प्रणाम-एक’ तथा ‘रसोई को प्रणाम-दो’ जैसी कविताएं पाठक को घर की सोंधी महक के रू-ब-रू लाकर खड़ा कर देती हैं। ‘कौन थी वह’, ‘डायनासोर’, ‘दिल’, ‘रामजी के गांवों में’, ‘पहाड़ी बिजूका’, ‘सांझापन’, ‘पनीर और प्याज’, ‘सोचा था’ तथा ‘प्रेमी जोड़े तुझे सलाम’ भी संग्रह की उल्लेखनीय कविताएं हैं जिनमें अमृतलाल मदान एक आत्मसजग कवि के रूप में सामने आये हैं। ये कविताएं यह भी साबित करती हैं कि वे अपने अर्जित मुहावरे में अपनी बात बखूबी कहना जानते हैं। ‘रंगमार्ग’, ‘पीला पत्ता’ व ‘भव्य और दिव्य’ जैसी कविताएं अपना एक अलग प्रतिसंसार रचती प्रतीत होती हैं। समग्रत: अमृतलाल मदान की कविताएं जीवन का एक व्यापक परिदृश्य उपस्थित करती हैं और अपने रंग-शिल्प की वजह से ये कविताएं अलग भी नजर आती हैं।
०पुस्तक : बूंद-बूंद अहसास ०लेखक : अमृतलाल मदान ०प्रकाशक : सुकीर्ति प्रकाशन, डीसी निवास के सामने, करनाल रोड, कैथल-136027 (हरियाणा) ०पृष्ठ संख्या : 136 ०मूल्य : रुपये 200/-.

(समीक्षा दैनिक ट्रिब्यून से साभार)

कैथलनामा चर्चा में

अमर उजाला - दिनांक 09.09.2012

वारिस शाह की हीर की महक है कैथल की मिट्टी में भी

कैथल, हीर, वारिस शाह और अमृता प्रीतम ...इनमें क्या सम्बन्ध है? इनमें क्या सांझा है? इनमें सांझा यह है कि ये पंजाब की ज़मीन से पैदा हुए हैं. तीनों ही मोहब्बत और इश्क में पगे रूहानी किस्म की शख्सियत के मालिक हैं. हीर ने इश्क के लिए अपनी जान दी , वारिस शाह ने उसके दर्द को सूफियाना ऊंचाइयों तक पहुंचाया तो अमृता प्रीतम ने हीर, इश्क और पंजाब की सांझी तहजीब और तारीख पर सियासी खंज़र के घोंपे जाने के दर्द को बिल्कुल नया फलक और आयाम दिया. उनकी नज़्म में बयान दर्द कैथल के बाशिंदों ने भी जिया. आजादी के पहले कैथल पंजाब का हिस्सा था. यह इलाका सिर्फ एक भौगोलिक इलाका नहीं था बल्कि अलग –अलग कौमों , तहजीबों, मज़हब, बोलियों, सूफियों , बेपनाह मोहब्बत, दर्द, तकलीफों और गर्मजोशी को समेटे एक अलग ही शख्सियत रहा है. ऎसी ही शख्सियत कैथल की भी रही है. लेकिन तकसीम और सियासती फरमानों ने मंज़र बदल दिया . पंजाब के साथ कैथल भी रोया . हिंदू- मुस्लिम गंगा- जमुनी संस्कृति वाला कैथल का इलाका उजड़ने लगा . एक सरहद बना दी गई और उसके “इधर” और “उधर” आना-जाना शुरू हुआ. कैथल से भी हज़ारों लोग बाप-दादाओं की पाक ज़मीन को छोड़, माल – असबाब गाड़ियों में लादे , कांख में गठरी दबाये, अपनी औरतों को लुटते देख ,खून के आंसू पीते “उधर” गए और ऐसे हजारो लोग यहाँ आये. रिफ्यूजी कैम्प बनने लगे .कैथल शहर का हर दूसरा और तीसरा बाशिंदा “रिफ्यूजी” बन कर आया. आज भी यहाँ के गाँवों में अपने मूल बाशिंदों को याद करती न जाने कितनी हवेलियाँ खँडहर बन चुकी हैं. हजारों बाशिंदों के ख्यालों में अभी भी अपने वालिदों या अपने बचपन के घरों, गलियों , मोहल्लों , और बाज़ारों को देखने , उनकी दीवारों को एक बार छू लेने, किसी पुराने अमरुद के दरख़्त पर लटक जाने और वहाँ की हवाओं को फेफड़ों में सोख लेने की कशिश बाक़ी है. सैंतालीस में आये बच्चों के चेहरों पर झुर्रियाँ आ गयीं हैं . लेकिन तमाम तकलीफों के बावजूद उन सब ने पंजाब की जिजीविषा , हिम्मत, मोहब्बत ,तहजीब और लगन को इस शहर की हवाओं में घोल सदियों पुराने इस शहर को और भी खूबसूरत बना दिया है. उन्होंने अपनी मेहनत से उद्योग , खेती ,व्यापार से लेकर साहित्य, शिक्षा और कला तक अपनी पहचान और जगह बनाई है. यह शहर हौसले वाला शहर है. और इसे यह हौसला दिया है उजड़ कर आये लोगों ने. यह शहर उन्हें सलाम करता है. यह शहर हीर, वारिस शाह, अमृता प्रीतम और उनकी मोहब्बत को सलाम करता है. यहाँ से उजड कर वहां बसे और वहां से उजड कर यहाँ बसे लोगों के लिए प्रस्तुत है अमृता प्रीतम की यह नज़्म जो उन्होंने विभाजन के बाद लिखी थी..इस नज़्म में उन्होंने वारिस शाह को संबोधित करते हुए कहा है कि जब पंजाब में हीर नाम की एक बेटी रोई थी तो उन्होंने उसके दर्द को संगीत में ढालकर लोकगीत बना दिया...आज जब विभाजन के समय लाखो बेटियां रो-चीख रहीं हैं तो वो बुला रही है वारिस शाह को और पूछ रहीं हैं कि कहाँ है उनके गीत ...सुनिए ये नज़्म खुद अमृता प्रीतम की आवाज़ में: (प्ले बटन पर क्लिक करें, अगर आपका कनेक्शन स्लो है तो 'बफर' होने में कुछ क्षण लग सकते हैं, कृपया प्रतीक्षा करें) -आशु वर्मा

गुलाम अली -संडे स्पेशल

शनिवार, 8 सितंबर 2012

सांझी विरासत पर प्रदर्शनी

पिछले दिनों कैथल में 'सम्भव'द्वारा कैथल की सांझी विरासत पर एक भव्य फोटो प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था. शहर के और दूर-दराज से आए सैकड़ों लोगों ने सम्भव के इस प्रयास को सराहा. इस प्रदर्शनी के आयोजन में सम्भव कार्यसमिति की मुख्य सदस्य डा.आशु वर्मा ने,जो स्वयं इतिहास की अध्यापिका हैं विशेष भूमिका निभाई थी. रामफल, संतरो, सत्यवान, गुरप्रीत, सोनिया,सुरेन्द्रपाल,विक्रम व् सम्भव के अन्य कई कार्यकर्ताओं ने इस प्रदर्शनी के संजोने में विशेष सहयोग किया था. शहर के संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और मीडियाकर्मियों का भी इस प्रदर्शनी के सफल आयोजन में विशेष योगदान दिया. प्रदर्शनी में आए स्थानीय नागरिकों ने कैथल के इतिहास और संस्कृति के बारे में टीम को कई महत्वपूर्ण जानकारियां दीं थी. शहरवासियों के इस उत्साहवर्धन ने सम्भव को स्थानीय इतिहास और संस्कृति पर दीर्घकालिक प्रोजेक्ट के तौर पर कार्य करने के लिए प्रेरित किया.ब्लॉग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है इस प्रदर्शनी की एक झलक:


शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

रेडियो पर आज की खास पेशकश

(नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें और खुलने पर प्ले बटन दबाएँ)

तितरम मोड़: आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक - ग़ालिब

शहर को मिलेगा ओपन एयर थियेटर

दिनांक 07-09-2012 के अमर उजाला के स्थानीय संस्करण की खबर के अनुसार कैथल शहर को सरकार एवं प्रशासन की ओर से ओपन एयर थियेटर की सौगात मिलने वाली है. खबर में आगे कहा गया है कि यह जगह शहर में राजनीतिक और सामजिक सभाओं के लिए भी उपयुक्त रहेगी. यकीनन कैथल में इस तरह के खुले सार्वजनिक क्षेत्र का नितांत अभाव है. 'वास्तव मे शहर के लिए यह एक अच्छी खबर है. किसी भी शहर की जीवन्तता के लिए एक सांस्कृतिक केन्द्र का होना प्राणवायु की तरह आवश्यक है. भौतिक विकास के साथ उसी गति से सांस्कृतिक विकास ना हो तो समाज में विशेष तरह की विकृतियां आ जाती हैं, 'संभव'एवं शहर के अन्य संस्कृतिकर्मियों ने कैथल में अपनी सांस्कृतिक मुहिम के दौरान कई बार इस ख़ालीपन को महसूस किया है. प्रशासन की पहल अत्यंत प्रशंसाजनक है. उम्मीद है कि यह केन्द्र महज राजनीतिक एवं सरकारी सभाओं के आयोजन का केन्द्र न बनकर सही अर्थों में एक वास्तविक सांस्कृतिक एवं सामुदायिक केन्द्र के रूप में उभरेगा.'

कंप्यूटर जी हैं, मास्टर जी नहीं

कंप्यूटर शिक्षा योजनाओं को लागू करने और कंप्यूटर खरीदने के लिए लाखों रुपये खर्च करना तो सरकारों के लिए आसान है पर कम्प्यूटरीकृत सरकारी विद्यालयों में कंप्यूटर-शिक्षकों की नियुक्ति में क्या रुकावटें आतीं हैं यह समझ से बाहर की बात है. नवाचार शिक्षा की योजनाएं सरकारी स्कूलों में क्या वास्तब में क्या कभी पूरी तरह लागू हो पाएंगी? ये ऐसे मुद्दें हैं जो हमारे बच्चों, हमारी बेटियों के भविष्य से जुड़े हुए हैं. इन पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए.

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

गजल-गुलाम अली

ये है कैथल रेडियोनामा. इस रेडियो के माध्यम से आप रोज-रोज कुछ नया सुन पायेंगे. गीत-संगीत, कविता-कहानी, कही-अनकही,गप-शप,और रूबरू भी हो सकेंगे शहर की अलग-अलग आवाजों से. आज इस फीचर में सबसे पहले सुनिए गुलाम अली को ...'हम तेरे शहर में आये हैं मुसाफिर की तरह, सिर्फ एक बार मुलाकात का मौका दे दे' सुनने के लिए 'प्ले' बटन को क्लिक करें

सिन्धु सभ्यता-गांव बालू

दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक--सिंधु सभ्यता की एक बस्ती कैथल में भी थी .कैथल  के बालू गाँव में खुदाई में निकले बर्तनों के अवशेष

किला कैथल का

कैथल के समृद्ध इतिहास का गवाह -किला कैथल का-आज भी शहर को गुज़रे कल की याद दिलाता है.
(किले के बारे में विस्तार से किसी अगली पोस्ट में)
तस्वीर: साथी बी.डी. के सौजन्य से

कैथल की कहानी-खुद कैथल की ज़ुबानी


मै कैथल हूँ... एक बेहद  प्राचीन शहर.. ... ज़र्रे ज़र्रे में तारीख समेटे... मेरे  किसी गांव, तहसील या फिर शहर की पुरानी गलियों में चहलकदमी करिये , आपके कानो में सुदूर अतीत से आती कुछ आवाजें गूंजेगी .... .....दबे पाँव यदि आप हवेलियों के खंडहरों, बावलियों, टूटे फूटे मकबरों ,मजारों, कुइयों, टीलों , किलों ,पोखरों और  मंदिरों में जाएँ  तो वे फुसफुसा कर आपसे कुछ कहना चाहेंगी....अपने समय की बात, अपने पुरखों  की कहानी,जीतों और पराजयों की कहानी, लूट की कहानी, अपने पुरखों की अदम्य मेहनत की कहानी, सूखी धरती  में पानी के स्रोत ढूँढने,खेती की शुरुआत करने ,गाँवों  के बसने और उजड़ने की कहानी,,, पलायन और विस्थापन की कहानी . यहाँ के बाशिंदों से बात करें...हर गाँव के बूढ़े बुजुर्ग को अपने गाँव के बसने की कहानी याद है... उन्होंने सुन रखी है अपने बूढ़े बुजुर्गों से ....यहाँ मौखिक परम्परा बेहद मज़बूत है...आखिर ये  संजय,  महाभारत,पुराणों की सरज़मीं जो है....यहाँ हर जगह आपको मिथक और यथार्थ का संगम देखने को मिलेगा.
कई बार मिथक और यथार्थ ऐसे घुले मिले रहते हैं कि उन्हें अलग करना मुश्किल होता है.,मेरी कहानी कुछ ऎसी ही है... ऋग्वेद के तीसरे मंडल ३/२३/४ और वामन पुराण में कैथल के पास से गुजरती अपाया नदी का जिक्र है. पुराणों में जिन
कथा लोगों का जिक्र है संभवतः वे मेरे ,कैथल के  किठाना या कथायाना गाँव  के लोग थे. इस इलाके में कथा गोत्र के ब्राह्मण काफी संख्या में बसे हैं.पाडिनी के अनुसार  कथासन्हिता”‘ की रचना कपिस्थल गोत्र के ब्राह्मणों द्वारा की गई [निरुक्त४/४}. चौसाला गाँव में च्यवन ऋषि का मंदिर है और उनसे जुडी कथाये बाशिंदों में प्रचलित हैं. वामन पुराण में कपिस्थल में वृद्धकेदार के  मंदिर का उल्लेख है. यही शायद बिगड़ते हुए आज बिद्क्वार हो गया है. कलायत का सम्बन्ध सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि से माना जाता है
कुरुक्षेत्र से लेकर कैथल  तक का पूरा इलाका महाभारत कालीन मना जाता है  कहते हैं की मुझे युधिष्ठिर ने बसाया था. मिथक के अनुसार कैथल का नाम कपिस्थल से निकला है क्योंकि हनुमान का जन्म कैथल में ही हुआ था...हनुमान की माँ अनजनी के  नाम पर यहाँ अनजनी का टीला है. गाँव खरक पांडवा को पांडवों की छावनी माना जाता है.पुराणों के अनुसार दृष्द्ती नदी के तट पर स्तिथ फल्गु में कृष्ण के सुझाव पर पांडवों ने तप किया था.एक कथा के अनुसार महाभारत युद्ध में हुए भीषण संहार के बाद पांडव अत्यंत विचलित थे.तब कृष्ण के कहने पर उन्होंने नव ग्रहपूजन किया और नौ कुंद बनवाए जो आज भी मौजूद हैं. उन नौ ग्रहों के मंदिर भी हैं जो ग्यारह रुद्री मंदिर के नाम से जाने जाते जाते हैं.ये तो थी मिथक  और यथार्थ की जुगलबंदी.जो सभ्यताएं जितनी पुरानी होतीं हैं वहाँ यथार्थ और मिथक का मिलन भी उतना ही गहरा होता है.

आइये, अब यथार्थ की दुनिया में चलते हैं.अगर हम अतीत की टेढी - मेढ़ी गलियों में भटकना शुरू करें तो वो हमे ले जाएंगी हडप्पा के समय में.जी हाँ, ये पूरा इलाका राखीगढ़ी,बनावली,मिताथल जैसे हडप्पा कालीन बस्तियों से घिरा है.और कैथल के बालू गाँव में हाल फिलहाल खुदाई का काम चल रहा है.
बहुत सारे इलाकों में कुषाण कालीन अवशेष मिले हैं.थेह पोलड में हिंद युनानीं और कुशान काल के सिक्के पाए गए हैं.  हर्षवर्धन के समय में इस इलाके ने भरपूर प्रगति की .चीनी यात्री ह्वेनसांग इस शहर की गलियों-कूचों से गुजरा. पठान, अफगान, सैयद इस सरज़मीं पे बसे. मंगोलों को यहाँ बसाया गया.पट्टी अफगान जैसे गाँवों के नाम आपको सुनने को मिलेंगे. इन सभी की संस्कृतियों , बोलियों, खान- पान, पहनावे,स्थापत्य और अपने बिछुडे  मुल्क की स्मृतियों को ज़िंदा रखने की ख्वाहिश  ने कैथल की संस्कृति में ढेरों  रंग भरे.सैयदों के समय में कैथल ज्ञान और कला का महत्वपूर्ण केन्द्र था .यहाँ तक की प्रसिद्द मध्यकालीन इतिहासकार जलालुद्दीन ने सैयद्कालीन कैथल के विद्वानों की तारीफ़  की है. यहाँ से होकर सुनाम, हांसी, हिसार, सिरसा जैसे सल्तनतकालीन बड़े शहरों को रास्ते जाते थे जिसके कारण मुसाफिरों ,व्यापारियों, भिक्षुओं और धडधडाती फौजों का यहाँ आना और गुजारना होता होगा. हिन्दुस्तान की पहली शासिका रजिया बेगम मध्ययुगीन पुरुषवादी मुल्ला मौलवियों और अपने पुरुष सिपहसालारों से नहीं जीत सकी और कैथल के जंगलों में मारी गई .....नहीं - नहीं ....पितृ सत्ता की बलि चढ गयी. मुग़ल काल में ये शहर एक बड़ी मंडी रहा .शहर की पुरानी गालियाँ उतार -चढ़ाव वाली हैं और कई हिस्से ऊंचाई पर बसे हैं जो इस शहर के बार- बार बसने या पुराने होने का साक्ष्य देते है. इस शहर ने गुर्जर प्रतिहार,  चंदेल, खिलजी ,तुगलक, बलूच, अफगान, मुगलों और सिखों का शासन देखा. १७१९-१७४८ तक मुग़ल बादशाह  मुहम्मद शाह के समय यह एक परगना था.१७३३ में यहाँ की ज़मींदारी एक बलूची उमर-उद्दीन खान के हाथ में आ गयी. १७५६ में बलूच आधिपत्य समाप्त हुआ जब इनायत खान अफगान के हाथ में ज़मींदारी आ गयी .आखिर में १७६७ में भाई देसु सिंह ने कैथल पर कब्ज़ा कर लिया और सिख शासन की नींव डाली. सिख गुरु गुरु हर राय ने देसु सिंह को भगत की उपाधि दी थी. तबसे कैथल के शासक भाई  कहलाये.देसु सिंह ने कैथल का भव्य किला, कैथल के आसपास कई छोटे किले, सरस्वती नदी पर कई कच्चे बाँध बनवाए और मांगना से कैथल तक नहरों से पानी लाने का इंतजाम किया.भाई उड़ाई सिंह ने विद्वानों को संरक्षण दिया. उसमे के महान कवी भाई संतोख सिंह उनके दरबार में थे जिन्होंने नानक प्रकाश , आतम पुराण , गुरु प्रताप सूरज  जैसी किताबें लिखीं और वाल्मीकि रामायण का अनुवाद भी किया.  
 कैथल पर  अल्लाउद्दीन खिलजी और नादिर शाह ने भी हुकूमत की. भारतीय उपमहाद्वीप की अलग अलग जगहों से अलग अलग नस्लों के सुल्तानो के काफिलों में साथ आये आम लोग कैथल में भी बसे.कुछ ने नए गाँव बसाये तो कुछ यहाँ की रिआया के साथ घुलमिल गए.  आज भी मेरे  गाँवों के नाम अपनी कहानी बयान करते हैं....पट्टीअफगान, अहमदपुर, रसूलपुर, खानपुर, फरिआबाद, फिरोजपुर, फतेहपुर, कमालपुर, खेडी सिकंदर, कुतुबपुर, खेडी शेरखान, कोले खान, लंडर कीमा,                          लंडर पीरजादा, पट्टी डोगरा,  सलीमपुर महदूद, वजीरनगर तो दूसरी तरफ रावण हेरा, खरक पांडवा,  रमाना रमानी और  तितरम  जैसे गाँव भी हैं जो हमारी मिथकीय विरासत को समेटे हुए हैं. यहाँ की बसावट में भी एक सांझापन रहा है. अमूमन हर गाँव में इंडो इस्लामिक शैली में बनीं इमारतों के खँडहर मिल जायेंगे तो कलायत में प्रतिहारों का बनवाया भव्य मंदिर.
१८४३ में इस शहर को अंग्रेजों ने हड़प लिया. शासक उदय सिंह की माँ साहब कौर और उनकी विधवा सूरज कौर ने वफादार सिपाही टेक सिंह ने अंग्रेजों को ज़बरदस्त टक्कर दी लेकिन पटियाला रियासत के राजा द्वारा धोखा दिए जाने की वजह से हार गए .टेक सिंह को काला पानी की सजा हुयी. किसानों की भयंकर लूट, दस्तकारी और व्यापार की तबाही , अकाल, और सांझी विरासत और संस्कृति  पर अंग्रेजों के हमले को यहाँ की रिआया ने महसूस किया और फिर अम्बाला से शुरू हुए ग़दर की ज्वाला से कैथल और उसके गांव भी धधक उठे....पाई गाँव में विद्रोहयों को तोपों के मुह पर बाँध कर उड़ा दिया गया...तो फतेहपुर पूंडरी की कमान संभाली गिरधर अहलूवालिया ने जिन्होंने कैथल के सब डिवीजनल अफसर को खत्म कर दिया .वे अंग्रेजों के द्वारा छलनी कर दिए गए. पर कैथल की रिआया ने हार नहीं मानी. १८८३ -१९०१ के बीच उसने पिअरसन  और कैप्टन मैक्नोल की फौजों को कड़ी टक्कर दी.
कैथल की जनता ने आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ कर हिस्सेदारी की. पिकेटिंग , हड़ताल ,स्वदेशी, बहिष्कार ,प्रभातफेरी,  असहयोग, खिलाफत ,नमक सत्याग्रह, भारत छोडो,  सभी आन्दोलनों में जनता ने भरपूर हिस्सेदारी की.तिलक के स्वराज फंड में कैथल से ३५०० रूपये इकट्ठा हुए.१९३१ में मौलाना मुहम्मद दीन की अध्यक्षता में कैथल में कांग्रेस का एक बड़ा जलसा हुआ.लोगों को जलसे में आने से रोकने के लिए भारी धर-पकड़ की गई.२६ जनवरी१९३१ को जगह -जगह तिरंगे फहराए गए. आजादी का जश्न भी यहाँ जम के मनाया गया....तो तकसीम में उजड़े रिफ्यूजियोंको जगह भी दी गई .   
ये तो थी कैथल की एक छोटी सी झांकी.हज़ारों साल पुराने एक शहर की कहानी क्या महज़ चंद सफों /लफ़्ज़ों में बयान हो सकती है?हम तो इस छोटी सी कहानी के बहाने से ये  बताना चाह रहे थे कि कोई भी मुल्क, सूबा, शहर या गाँव किसी एक कौम या मज़हब का नही होता...इतिहास ऐसा होने  ही नहीं देता .क्योंकि इतिहास ने खुद में समेट रखें हैं बहुतेरे  रंग. इसके हर पन्ने पे अलग अलग कौमों, मजहबों, बोलियों, तौर तरीकों ,रवायतों के घुलने - मिलने की कहानी है  .कैथल की ज़मीन ने, कैथल के बाशिंदों ने, कैथल के इतिहास ने, सदियों से सभी को जगह दी है.यहाँ नीम साहब गुरद्वारा है जहां सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर आये. सभी मज़हब के के लोग यहाँ आते हैं.गुरुद्वारा मंजी साहब की कहानी भी गुरू तेग बहादुर से जुडी है. कहते है  गुरु एक बढई और एक बनिया के घर गए और उन्हें आशीर्वाद दिया.बढई ने यह जगह गुरद्वारे के लिए दे दी.   आजादी के पहले शीतला मंदिर में मुस्लिम जोगी पूजा करते थे. कैथल हमेशा से सूफी संतों का शहर रहा...शेख कमाल बाबा कादरी, शेख शहाबुद्दीन शाह विलायत,शेख तैयब, समध सितलपुरी जैसे सूफी संतों ने गंगा जामुनी संस्कृति के बनने में मदद की. शहर की सबसे अज़ीम जगह सूफी संत हजरत शाह बाबा कमाल कादरी और उनके पोते सिकंदर कादरी की मज़ार है जो यहाँ ९२८ हिजरा {१६ वीं सदी }में बग़दाद से कादरी सिलसिले की शिक्षा देने आये थे.तब कैथल धर्म और दर्शन का केन्द्र बना. आज यहाँ सभी धर्म के लोग जियारत के लिए आते हैं. पादशाही गुरुदारा भी अपने में एक कहानी समेटे हुए है. टोपिया गुरुद्वारा में रामायण का पाठ होता है. कैथल की संस्कृति को एक अलग रंग दिया है तकसीम के समय आये रिफ्यूजियों ने. जाट सरदार और मुल्तान, लाहौर, झंग जैसी जगहों से उजड कर आये लोगों की पहली पीढ़ी अभी ज़िंदा है. वक्त की लकीरें चेहरे पर  बयान करती किसी बुज़ुर्ग को कुरेदिये, उसकी आँखे टंग जाएंगी कहीं  दूर, बहुत दूर, बचपन में गुज़ारे गए किसी मकान पे,किन्ही गलियों और बाज़ारों पे , किसी स्कूल पे या किसी लाला की दूकान पे.और बात करिये.... अब उनकी आँखें नम हो जाएंगी और एक अजीब किस्म की कसमसाहट , एक गहरी छटपटाहट उनपे छ जायेगी. बंटवारे की पीड़ा,अपनी पुरखों की ज़मीन से उजडने, अपनों को खो देने, अपनों मारे  जाने की पीड़ा सीने में जज़्ब किये उसने इस शहर में अपनी मेहनत से जगह बनाई है. उसने शहर को एक बेलौस चमक दी है.उनकी वजह से शहर की हवाओं में एक अजीब सी खुशी और उल्लास तारी रहती है.
आज मै लगातार फ़ैल रहा हूँ .आस पास के गाँवों के लोग नौकरी, पढ़ाई,और छोटे मोटे काम की तलाश में यहाँ आकर बस रहे हैं. देश की बिगड़ती राजनीती और धार्मिक उन्माद का असर मैंने भी महसूस किया हैं. मेरा दिल जार जार रोता है. जिसकी फिजाओं में बुल्ले शाह , बाबा फरीद, नानक के  बोल और शब्द  गूंजते रहे हों, जिसकी तहजीब को बाबा कमाल शाह, शेख तैयब, गुरु तेग बहादुर ने सींचा हो, जिसने हडप्पा के समय से सांझी विरासत का जश्न मनाया हो, जहां दुनिया का सबसे बेहतरीन महाकाव्य रचा गया हो . उसपर आज आंच आने लगी है. जाति, मज़हब के मसलों पर तलवारें खिंचने लगी हैं..मेरे ऊपर खून के छीटें  पड़े हैं. इज्ज़त के नाम पे औरतों और लड़कियों  के साथ होने वाली घटनाओं से मेरा सिर शर्म से झुक जाता है.
नयी  पीढ़ी सुंदर  अतीत को भूलती जा रही है. उसे कौन याद दिलाएगा?कौन परिचित कराएगा? अब वक्त आ गया है जब हमे मिल कर सोचना चाहिये.इस शहर को रंग बिरंगे फूलों का बागीचा बने रहने देना चाहिए.....ताकि सांझी विरासत का जश्न चलता रहे ...मनता रहे .     

होनहार बिरवान

 ये तस्वीर है सरकारी स्कूल कैलरम के नन्हे-मुन्हे खिलाडियों की जो पिछले दिनों गुडगाँव में आयोजित राज्य स्तरीय योग प्रतियोगिता में अव्वल रहे थे. यही नन्हे मुन्हे इस देश की उम्मीदें हैं और इन होनहारों को हम से भी कुछ अपेक्षाएं हैं.  आईये इनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करें. कैथलनामा की पहली तस्वीर इन रोशन उम्मीदों को समर्पित है.
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बुधवार, 5 सितंबर 2012

कैथलनामा-'सम्भव' की एक विनम्र कोशिश

आईये ! कैथल की कहानियाँ साझी करें. इसके इतिहास से सबक ले. इसकी संस्कृति को समझें. इसके साहित्य को गुने. इसकी कामयाबियों का जश्न मनाएं. इसकी पीड़ा को साँझा करें और इसकी समस्याओं के मिलजुलकर हल तलाशें. कैथलनामा में आपका स्वागत है.