रविवार, 16 दिसंबर 2012

कैथल की सरज़मीन का एक सिलसिला



                  उजाला इसकदर बेनूर क्यों है   
           किताबें ज़िन्दगी से दूर क्यों हैं

ये कहना है उर्दू के अज़ीम शायर जनाब फरहत शहजाद का. फरहत साहब जो समकालीन उर्दू शायरी का एक ऐसा नाम है जिसकी शायरी को भारतीय उपमहाद्वीप के सभी फनकारों ने अपनी आवाज़ दी है. इनकी पहली ग़ज़ल मेहंदी हसन साहब ने गाई और उनकी ही गज़ल मेहंदी साहब की आखिरी ग़ज़ल बनी. यही फरहत साहब अपनी जड़ों को तलाशते कल कैथल में थे. इनके वालिद तकसीम के समय पाकिस्तान के डेरा गाजी खान चले गए थे जहां फरहत साहब का जन्म हुआ.
     फरहत साहब यूं तो पिछले 35 सालों से अमरीका में हैं, लेकिन उनकी रूह यहीं गंगा-सतलुज और सिन्धु के मैदानों में मंडराती रहती है. साल के पांच-छह महीने वे यहीं गुजारते हैं. अपने पुरखों की सरज़मीन को देखने, उसे सिजदा करने, उसे छूने और महसूस करने की चाह उन्हें कैथल ले आयी और कल वे अपने अज़ीज़ दोस्तों जनाब दिनेश यादव और तरुण वर्मा के साथ अपने वालिद और अपनी अम्मी के घर गए . वक़्त ने हांलाकि मंज़र बदल दिया है, हवेली के आसपास बाज़ार उग आया है, फिर भी फरहत साहब को वहा की गलियों, वहाँ की हवा, पेड़ों, घरों, इधर-उधर डोलते पिल्लों और यहाँ तक की नालियों को देख कर महसूस हुआ जैसे वो अपने घर, अपने अब्बा के घर आये हैं ....अपनी अम्मी के घर.........आये हैं .....
   वे उस मस्जिद में भी गए जहां कभी उनके अब्बा जाया करते थे. आसपास के बाशिंदों से बात कर जैसे उनकी रूह को सुकून सा मिला.
   शाम को शहर के बाशिंदों ने उनका इस्तकबाल किया. कोयल काम्प्लेक्स में तकसीम(विभाजन) के समय उजड़ कर कैथल आये लोग उनकी एक झलक लेना चाहते थे....प्राध्यापक, दुकानदार, सरकारी मुलाजिम भी जिनके परिवार उधर से आये थे और जिन्हें अपने ज़मीन की खुशबू लेकर आये फरहत साहब को सिजदा करना था, वहां मौजूद थे.
       आये हुए लोगों की मुहब्बत फरहत साहब की आँखों को नम कर गयी. उन्होंने कहा की इतिहास में जो कुछ घट चूका है उसे हम बदल नहीं सकते....लेकिन हम आने वाले समय को बेहतर बना सकते हैं. दोनों मुल्कों का माजी (अतीत) एक रहा है, दोनों की आबो-हवा एक है, तहजीब एक है.....और लोग एक हैं जो अमन और शान्ति चाहते हैं. उन्होंने कहा की कुछ ही लोग हैं जो बुरा चाहते हैं, बाकी अवाम तो हमेशा बेहतरी चाहती है. हमें अवाम पर भरोसा करना चाहिए. दोनों मुल्कों के अमनपरस्त साहित्यकारों,  फिल्मकारों, फनकारों और पढ़े-लिखे लोगों की सांझी कोशिश से ही मुहब्बत को कायम रखा जा सकता है.
    
       कार्यक्रम के दौरान गंगा-जमुनी संस्कृति की बेहतरीन मिसाल देखने को मिली. मुल्तान से आकर बसे अजीम शायर राणा प्रताव गंनौरी साहब ने मुल्तानी में नज्में पढ़ीं. वो अभी भी अपनी माँ-बोली को जिंदा रखे हुए हैं. तो दूसरी तरफ फरहत साहब ने भी ठेठ हरियाणवी में किस्से सुनाये. यहाँ डेरा गाजी खान के दो बेटे भी पहली बार आपस में मिले, एक फरहत साहब तो दूसरे कैथल के जानेमाने साहित्यकार डा. अमृत लाल मदान. मदान साहब और उनकी पत्नी का परिवार विभाजन के समय डेरा गाजी खान से यहाँ आकर बसा था.
    फरहत साहब ने बताया की उनकी पत्नी हिन्दुस्तान से हैं. और वे जल्दी ही देवनागरी पढ़ना और लिखना सीखने जा रहें हैं ताकि वे हिंदी रचनाकारों को भी पढ़ सकें. फरहत साहब न जाने कितनों की ख्वाहिशें बन कर यहाँ आये थे. उनके मार्फ़त न जाने कितने लोगों ने अपनी ज़मीन को सिजदा किया. न जाने वे कितनों के दिलों में अपनी ज़मीन को बस एक बार देखने की ख्वाहिशें जगा गए. उनके अब्बा ने उनसे कहा था, फरहत, मुझे हज पर भले ही न ले जाना, पर एक बार कैथल ज़रूर दिखा देना. अब्बा की ख्वाहिश तो सियासी दांव-पेंचों मे उलझ कर रह गयीं पर फरहत साहब को ज़रूर सुकून मिला होगा. और हम सब उन्हें देख कर कृतार्थ हुए.......


         

2 टिप्‍पणियां:

  1. BAHUT ACHCHA LAGA AAP LOG GAZAB KAAM KAR RAHE HAIN MERI HARDIK SHUBH KAMNAYEN AGAR AISA KUCH AZAMGARH KE BAARE MEIN KIYA JAYE TO KAISE SHURUAAT KI JAAYE KYA GUIDANCE AAP LOG DE SAKTE HAIN

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  2. बहुत मार्मिक रिपोर्टिंग की है. कार्यक्रम का पूरा माहौल आँखों के आगे आ गया.

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