शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कितने कैथल ?

कैथल सिर्फ किसी एक भौगोलिक इकाई का नाम नहीं है. दुनिया में जगह-जगह कैथल हैं और हर कैथल में जगह-जगह अलग दुनिया है. हर कैथल की पीड़ा सांझी है. हर पीड़ा का कैथल साँझा है. सियासतें, घटनाएँ और तारीख लोगों को उजाड़ कर भले ही एक जगह से दूसरी जगह पर धकेल दें पर लोगों की यादों, तहजीब, खान-पान, रवायतों और बोलियों को क्या कभी वे बदल पाएं हैं? कागज पर नक्शा खींच कर सरहद के ‘इधर’ और ‘उधर’ पहुंचा दिए गए लोग जिस मिट्टी में पले-बढे हों और वहीं-कहीं तोतली जबान को बोलते हुए भाषा सीखी हो, जहाँ का गीत-संगीत, मुहावरे, गालियाँ और..और भी न जाने क्या-क्या अपने खून में रचाया बसाया हो उस मिट्टी की महक को भला कौन सियासत मिटा सकी है, मिटा पायेगी? सपनो, खुशियों और स्यापों के साये मजबूती से उनका दामन पकड़े साथ-साथ चलते हैं ताउम्र.... तकसीम के समय गहरी पीड़ा, आंसूओं और छलनी हो चुके दिलों के साथ लाखों लोग इधर से उधर या उधर से इधर भेज दिए गए लेकिन उनकी माँ बोली उनके साथ बनी रही. अपनी जुबान, तहजीब और अपनी मिट्टी की यादों को संजो कर रखने वाले लोग सरहद के दोनों ओर हैं. ऐसे ही लोगों से तहजीब बची रहती ओर बिखरती जाती है ओर आने वाली पीढियां उसे थामे रहती हैं. तकसीम के वक्त हरियाणा से पाकिस्तान गए लोंगो ने आज भी अपनी मा.बोली हरियाणवी को जिन्दा रखा है और इधर राणा प्रताप गन्नौरी जैसी शख्सियतों ने अपनी माँ-बोली मुलतानी में ढेरों नज्में लिख कर अपनी मिट्टी की महक को जिंदा रखा है. सांझी विरासत की ऐसी मिसालों से ही अमन की मशालें रोशन हैं. देखिये ये दोनों वीडियो...

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