बुधवार, 19 सितंबर 2012

हाल हाळी का

कात्तिक बदी अमावस थी और दिन था खास दीवाळी का 
-आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

कितै बणैं थी खीर, कितै हलवे की खुशबू ऊठ रही 
-हाळी की बहू एक कूण मैं खड़ी बाजरा कूट रही ।

हाळी नै ली खाट बिछा, वा पैत्याँ कानी तैं टूट रही
-भर कै हुक्का बैठ गया वो, चिलम तळे तैं फूट रही ॥

चाकी धोरै जर लाग्या डंडूक पड़्या एक फाहळी का
-आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

सारे पड़ौसी बाळकाँ खातिर खील-खेलणे ल्यावैं थे
-दो बाळक बैठे हाळी के उनकी ओड़ लखावैं थे ।

बची रात की जळी खीचड़ी घोळ सीत मैं खावैं थे
-मगन हुए दो कुत्ते बैठे साहमी कान हलावैं थे ॥

एक बखोरा तीन कटोरे, काम नहीं था थाळी का
-आंख्यां कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

दोनूँ बाळक खील-खेलणाँ का करकै विश्वास गये
-माँ धोरै बिल पेश करया, वे ले-कै पूरी आस गये ।

माँ बोली बाप के जी नै रोवो, जिसके जाए नास गए
-फिर माता की बाणी सुण वे झट बाबू कै पास गए ।

तुरत ऊठ-कै बाहर लिकड़ ग्या पति गौहाने आळी का
-आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

ऊठ उड़े तैं बणिये कै गया, बिन दामाँ सौदा ना थ्याया
-भूखी हालत देख जाट की, हुक्का तक बी ना प्याया !

देख चढी करड़ाई सिर पै, दुखिया का मन घबराया
-छोड गाम नै चल्या गया वो, फेर बाहवड़ कै ना आया ।

कहै नरसिंह थारा बाग उजड़-ग्या भेद चल्या ना माळी का ।
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥


(साथी विक्रम प्रताप द्वारा प्रेषित दिल को छू लेने वाली हरियाणवी कविता)

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

ऐ हुस्न हकीकी - नूर - ए - असल


              ऐ हुस्न हकीकी - नूर - ए - असल
                                      ---अरीब अजहर   
 कौन कहता है कि हिन्दुस्तानी उपमहाद्वीप से गंगा जामुनी तहजीब खत्म हो  गई है... पाकिस्तान के नागमानिगार और गायक अरीब अजहर गाते हैं
            ऐ हुस्न - हकीकी नूर असल
            तनु बादल बरखा  दाज  कहूँ
            तनु आब कहूँ तनु ख़ाक कहूँ
            तनु दसरत लिछमन राम कहूँ
            तनु किसन कन्हैया कान कहूँ
            तनु ब्रह्मा किशन गणेश  कहूँ  
            महादेव कहूँ भगवान कहूँ
            तनु नूह कहूँ तूफ़ान कहूँ  
            तनु  इब्राहिम खलील कहूँ
            तनु मूसा बिन इमरान कहूँ  
            तनु सुर्खी बीड़ा पान कहूँ
            तनु तबला तय तम्बूर कहूँ
            तनु  ढोलक सुर तय  तान कहूँ

    यह गीत, यह शायरी हिंदू की है या  मुसलमान की ? यह शायरी हिन्दुस्तान की है या  पाकिस्तान की? इसे हम कैसे बाँट सकते हैं ? यहाँ तो कृष्ण - कन्हैया , मूसा, इब्राहिम से लेकर गीत - संगीत और सबसे बड़ी बात मिली जुली तहजीब में रचा-पगा इंसान तक सांझा है .  भक्ति, सूफी , इश्क , मोहब्बत में डूबा , अल्लाह, मूसा, राम और कन्हैया से गुफ्तगू  करता,  अनहद की ऊंचाइयों तक पहुंचाता पेश है  अरीब अजहर  का यह नगमा कैथलनामा की ओर से ---   
( सौजन्य : कोक स्टूडियो )
  

किस्सा भगत सिंह (ऑडियो) -भाग एक

हरियाणा में रागिणी की समृद्ध परंपरा है. धार्मिक किस्सों के अतिरिक्त अनेक गायकों ने शहीदों,लोकनायकों और स्वतंत्रता संग्राम के किस्सों को भी लिखा-गाया है. भगत सिंह का किस्सा भी हरियाणवी जनमानस में काफी लोकप्रिय रहा है. इस माह सत्ताइस सितम्बर को शहीद भगत सिंह का जन्मदिन है. अपने श्रोताओं व पाठकों के लिए भगत सिंह का किस्सा किश्तों में प्रकाशित करेंगे. इस किस्से को गाया है मास्टर सतबीर सिंह जी ने. (सुनने के लिए नीचे दिए गए लिंक्स के प्ले बटन पर क्लिक करें, अगर आपका कनेक्शन स्लो है तो बफर होने में थोड़ा समय लग सकता है कृपया प्रतीक्षा करें) (1)रोवन आला आपै जाणे (2)जोड़े हाथ खड़ा (3)भगत सिंह आजादी की हाँ (4)कुछ तो मेरे मन में थी

सोमवार, 17 सितंबर 2012

एक बेबाक शायर : हाली पानीपती

हिन्दुस्तानी तहजीब की तरह हरियाणा की तहजीब और परम्परा भी हमेशा से बहुलतावादी रही है. लेकिन पिछले कुछ समय से तहजीब और संस्कृति को खास चश्मों से देखने की रवायत चल पड़ी है. तारीख भुलाई जाती रही है और गंगा -जमुना संस्कृति की तो बात करना भी वक्त जाया करना माना जाता है. ऐसे में “कैथलनामा” की बराबर यह कोशिश रहेगी कि हरियाणा और विशेषकर कैथल के सांझे इतिहास को याद किया जाए, उसे घर-घर पहुंचाया जाये और एक सांस्कृतिक आंदोलन की शरुआत की जाये . मीर, ग़ालिब , जौक उन्नीसवीं सदी के हिन्दोस्तान के चमकते शायर थे . उनमें एक शायर और भी था जिसका अंदाज़े बयान कुछ अलग ही था. अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती , इनकी काबिलियत को ग़ालिब ने भी स्वीकारा और कहा , “हालांकि मैं किसी को शायरी करने की इजाज़त नहीं देता , लेकिन तुम्हारे बारे में मेरा कहना है कि तुम शेर नहीं कहोगे तो तो अपने दिल पर भारी अत्याचार करोगे.” अल्ताफ हुसैन हाली, पानीपत, हरियाणा के रहने वाले थे, और अपने ज़माने के तल्ख़ हालातों पर बेबाक शायरी करने की वजह से “हाली” कहलाये, जिसे बाद में उन्होंने अपना तखल्लुस बना लिया . हाली ने शराब और शबाब से इतर अपनी शायरी को अपने समय के कड़वे सच से नवाजा . उनका समय (1837--1914) हिन्दोस्तान के लिए बेतरह उथल-पुथल भरा समय था. एक तरफ बर्तानियाई हुकूमत , तो दूसरी तरफ हिंदू- मुसलमान में बांटा जाता आवाम. वे फटकारते हैं इस आवाम को –
 तुम अगर चाहते हो मुल्क की खैर
 न किसी हम वतन को समझो गैर
 हो मुसलमान उसमें या हिंदू
 बौद्ध मज़हब हो या के हो बरहमू
सबको मीठी निगाह से देखो समझो
आँखों की पुतलियाँ सबको
 अपने मुल्क के लिए बेपनाह मोहब्बत ही हाली को मुल्क की लगातार होती जा रही बर्बादी पर सोचने के लिए परेशान करती रही. वे सोचते रहे और लिखते रहे कि उसे और – और खूबसूरत कैसे बनाया जाए. वे धन के लालच में किसी सुलतान की खिदमत में अपनी मिट्टी छोड़ कहीं और जाने के बजाय अपनी मिट्टी में मिल जाने की ख्वाहिश रखते थे—
 तेरी एक मुश्ते ख़ाक के बदले
 लूं न हरगिज़ अगर बहिश्त मिले
 हाली ऐसे शायर नहीं थे कि जब दिल्ली और पूरा मुल्क 1857 की ग़दर में धधक रहा हो, वे हुस्न की शायरी करें. नहीं, बल्कि दिल्ली और आवाम की बर्बादी से वे हिल गए और उनकी कलम ने लिखा—
 तज़किरा देहली – ए—मरहूम का अय दोस्त न छेड़
 न सुना जाएगा हम से यह फसाना हर्गिज़
 मिट गए तेरे मिटाने के निशाँ भी अब तो
 अय फलक इससे ज़्यादा न मिटाना हर्गिज़
 मेहनतकशों की मेहनत को सलाम करते हुए उनकी लूट पर वे जो लिखते हैं वह आज की ग्लोबल अर्थव्यवस्था में कामगारों की मेहनत की लूट पर भी बिल्कुल सटीक बैठता है—
 नौकरी ठहरी है ले दे के अब औकात अपनी
 पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
 अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
 जा पड़ी गैर के हाथों में हर एक बात अपनी
 हाथ अपने दिले आज़ाद से हम खो बैठे
 एक दौलत थी हमारी सो उसे खो बैठे
 अपने समय के दर्द को बेहद सरल और खूबसूरत ढंग पेश करने के साथ ही हाली पानीपती को सबसे ज़्यादा जिस बात के लिए सलाम किया जाना चाहिए वह है औरतों का मसला. यकीन नहीं होता कि आज से डेढ़ सौ साल पहले एक शायर इतनी संजीदगी से औरतों की ज़िंदगी को, उनके दर्द को, उनकी गुलामी को , देख और महसूस कर रहा था.
 ज़िंदा सदा जलती रहीं तुम मुर्दा ख्वाहिशों के साथ
 और चैन से आलम रहा ये सब तमाशे देखता
 ब्याहाँ तुम्हें या बाप ने ऐ बे ज़बानों इस तरह
 जैसे किसी तकसीर पर मुजरिम को देते हैं सज़ा
 ताज्जुब होता है कि इतने सालों पहले वे औरत - मर्द की बराबरी की बात करते हैं... .................
 शौहर हूँ उस में या पिदर ,या हूँ बिरादर या पिसर
 जब तक जियो तुम इल्मो दानिश से रहो महरूम यां
 आयी हो जैसी बे खबर वैसी ही जाओ बे खबर
 जो इल्म मर्दों के लिए समझा गया आबे हयात
 ठहरा तुम्हारे हक में वो ज़हरे हलाहिल सर बसर
 उन्होंने औरतों के प्रति ज़ुल्म और आखिरकार उनकी जीत का हौसला दिलाया. हाली ने हमेशा औरतों को सलाम किया और कहा---
 ऐ माओं , बहनों , बेटियों , दुनिया की जीनत तुमसे है
 मुल्कों की बस्ती हो तुम्हीं, कौमों की इज्ज़त तुमसे है
 तुम हो तो ग़ुरबत है वतन ,
तुम बिन है वीराना चमन हो देस या परदेस जीने की हलावत तुम से है
 मोनिस हो खाविन्दों की तुम , गम ख्वार फ़र जन्दों की तुम
 तुम बिन है घर वीरान सब , घर भर की बरकत तुम से है
 तुम आस हो बीमार की , उसरत में इशरत तुम से ............

. था पालना औलाद का मर्दों के बूते से सिवा
 आखिर ये ऐ दुखियारों ! खिदमत तुम्हारे सर पड़ी ...............

 अक्सर तुम्हारे कत्ल पर
 कौमों ने बांधी है कमर
 दें ताके तुम को यक क़लम,
 खुद लोहे हस्ती से मिटा गाड़ी गई तुम
 मुद्दतों मिट्टी में जीती जागती
 हामी तुम्हारा था मगर कोई नं जुज़ जाते खुदा

 ये तो कुछ आधी-अधूरी नज्में हैं.पूरी की पूरी यहाँ देना संभव नहीं है. हाली अपने समय के अफ़सानागार थे जिन्होंने शायरी में अपनी बात कही .समाज में मौजूद ऊंच – नीच , भेदभाव, कट्टरपन, अतार्किकता, सभी पर बेहद सरल भाषा में चोट की .महात्मा गांधी तक उनसे प्रभावित होकर उनसे कहते हैं, ”अगर हिन्दुस्तानी ज़ुबान का कोई नमूना पेश किया जा सकता है तो वो मौलाना हाली की नज़्म “मुनाजाते बेवा” का है .” हाली ने इतना कुछ लिखा कि उसे एक दिन में बयान कर देना गुस्ताखी होगी .आने वाले समय में हम कैथलनामा के मार्फ़त हाली पानीपती की और भी नज्में और उनकी ज़िंदगी से जुड़े वाक्यों से आपको रू-ब-रू कराते रहेंगे. उम्मीद है एक बेहद बड़े शायर पर बेहद मामूली सा हमारा यह प्रयास आपको पसंद आएगा और आप अपने सुझावों के द्वारा इसे बेहतर बनायेंगे. (आभार –डा.सुभाष चन्द्र एवं राम मोहन राय की पुस्तक “नवजागरण के अग्रदूत अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती ,चुनिन्दा नज्मे और गजलें” के आधार पर )

शताब्दियों के गाए गीतों का अर्क है रागणी

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कितने कैथल ?

कैथल सिर्फ किसी एक भौगोलिक इकाई का नाम नहीं है. दुनिया में जगह-जगह कैथल हैं और हर कैथल में जगह-जगह अलग दुनिया है. हर कैथल की पीड़ा सांझी है. हर पीड़ा का कैथल साँझा है. सियासतें, घटनाएँ और तारीख लोगों को उजाड़ कर भले ही एक जगह से दूसरी जगह पर धकेल दें पर लोगों की यादों, तहजीब, खान-पान, रवायतों और बोलियों को क्या कभी वे बदल पाएं हैं? कागज पर नक्शा खींच कर सरहद के ‘इधर’ और ‘उधर’ पहुंचा दिए गए लोग जिस मिट्टी में पले-बढे हों और वहीं-कहीं तोतली जबान को बोलते हुए भाषा सीखी हो, जहाँ का गीत-संगीत, मुहावरे, गालियाँ और..और भी न जाने क्या-क्या अपने खून में रचाया बसाया हो उस मिट्टी की महक को भला कौन सियासत मिटा सकी है, मिटा पायेगी? सपनो, खुशियों और स्यापों के साये मजबूती से उनका दामन पकड़े साथ-साथ चलते हैं ताउम्र.... तकसीम के समय गहरी पीड़ा, आंसूओं और छलनी हो चुके दिलों के साथ लाखों लोग इधर से उधर या उधर से इधर भेज दिए गए लेकिन उनकी माँ बोली उनके साथ बनी रही. अपनी जुबान, तहजीब और अपनी मिट्टी की यादों को संजो कर रखने वाले लोग सरहद के दोनों ओर हैं. ऐसे ही लोगों से तहजीब बची रहती ओर बिखरती जाती है ओर आने वाली पीढियां उसे थामे रहती हैं. तकसीम के वक्त हरियाणा से पाकिस्तान गए लोंगो ने आज भी अपनी मा.बोली हरियाणवी को जिन्दा रखा है और इधर राणा प्रताप गन्नौरी जैसी शख्सियतों ने अपनी माँ-बोली मुलतानी में ढेरों नज्में लिख कर अपनी मिट्टी की महक को जिंदा रखा है. सांझी विरासत की ऐसी मिसालों से ही अमन की मशालें रोशन हैं. देखिये ये दोनों वीडियो...

अनपढ़ माणस समझे कोन्या

कैथलनामा के पाठकों-श्रोताओं के लिए आज प्रस्तुत है रागणी - अनपढ़ माणस समझे कोन्या. हमारा प्रयास रहेगा कि समय-समय पर हम आप सब के लिए हरियाणवी लोकसंगीत प्रस्तुत करते रहें. आपके सुझाव आमंत्रित हैं.