मै कैथल हूँ... एक बेहद प्राचीन शहर.. ... ज़र्रे –ज़र्रे में तारीख समेटे... मेरे किसी गांव, तहसील या फिर शहर की पुरानी गलियों
में चहलकदमी करिये , आपके कानो में सुदूर अतीत से आती कुछ आवाजें गूंजेगी .... .....दबे
पाँव यदि आप हवेलियों के खंडहरों, बावलियों, टूटे फूटे मकबरों ,मजारों, कुइयों, टीलों ,
किलों ,पोखरों और मंदिरों में जाएँ तो वे फुसफुसा कर आपसे कुछ कहना चाहेंगी....अपने
समय की बात, अपने पुरखों की कहानी,जीतों
और पराजयों की कहानी, लूट की कहानी, अपने पुरखों की अदम्य मेहनत की कहानी, सूखी धरती में पानी के स्रोत ढूँढने,खेती की शुरुआत करने
,गाँवों के बसने और उजड़ने की कहानी,,, पलायन और विस्थापन
की कहानी . यहाँ के बाशिंदों से बात करें...हर गाँव के बूढ़े बुजुर्ग को अपने गाँव
के बसने की कहानी याद है... उन्होंने सुन रखी है अपने बूढ़े बुजुर्गों से ....यहाँ
मौखिक परम्परा बेहद मज़बूत है...आखिर ये संजय, महाभारत,पुराणों की सरज़मीं जो है....यहाँ हर जगह
आपको मिथक और यथार्थ का संगम देखने को मिलेगा.
कई बार मिथक और यथार्थ ऐसे घुले मिले रहते हैं कि उन्हें अलग
करना मुश्किल होता है.,मेरी कहानी कुछ ऎसी ही है... “ऋग्वेद” के तीसरे मंडल
३/२३/४ और “वामन पुराण” में कैथल के पास से गुजरती “अपाया” नदी का जिक्र है. पुराणों में जिन
‘कथा’ लोगों का जिक्र
है संभवतः वे मेरे ,कैथल के “किठाना” या “कथायाना” गाँव के लोग थे. इस इलाके में “कथा” गोत्र के
ब्राह्मण काफी संख्या में बसे हैं.पाडिनी के अनुसार ‘कथासन्हिता”‘ की रचना कपिस्थल गोत्र के ब्राह्मणों द्वारा की गई
[निरुक्त४/४}. चौसाला गाँव में च्यवन ऋषि का मंदिर है और उनसे जुडी कथाये बाशिंदों
में प्रचलित हैं. “वामन पुराण” में कपिस्थल में “वृद्धकेदार” के मंदिर का
उल्लेख है. यही शायद बिगड़ते हुए आज “बिद्क्वार” हो गया है. कलायत का सम्बन्ध सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल
मुनि से माना जाता है
‘ कुरुक्षेत्र से लेकर कैथल तक का पूरा
इलाका महाभारत कालीन मना जाता है कहते हैं
की मुझे युधिष्ठिर ने बसाया था. मिथक के अनुसार कैथल का नाम कपिस्थल से निकला है
क्योंकि हनुमान का जन्म कैथल में ही हुआ था...हनुमान की माँ अनजनी के नाम पर यहाँ “अनजनी का टीला” है. गाँव “खरक पांडवा” को पांडवों की छावनी माना जाता है.पुराणों के अनुसार
दृष्द्ती नदी के तट पर स्तिथ फल्गु में कृष्ण के सुझाव पर पांडवों ने तप किया था.एक
कथा के अनुसार महाभारत युद्ध में हुए भीषण संहार के बाद पांडव अत्यंत विचलित थे.तब
कृष्ण के कहने पर उन्होंने नव ग्रहपूजन किया और नौ कुंद बनवाए जो आज भी मौजूद हैं.
उन नौ ग्रहों के मंदिर भी हैं जो ग्यारह रुद्री मंदिर के नाम से जाने जाते जाते
हैं.ये तो थी मिथक और यथार्थ की जुगलबंदी.जो
सभ्यताएं जितनी पुरानी होतीं हैं वहाँ यथार्थ और मिथक का मिलन भी उतना ही गहरा
होता है.
आइये, अब यथार्थ की दुनिया में चलते हैं.अगर हम अतीत की
टेढी - मेढ़ी गलियों में भटकना शुरू करें तो वो हमे ले जाएंगी हडप्पा के समय में.जी
हाँ, ये पूरा इलाका राखीगढ़ी,बनावली,मिताथल जैसे हडप्पा कालीन बस्तियों से घिरा
है.और कैथल के बालू गाँव में हाल फिलहाल खुदाई का काम चल रहा है.
बहुत सारे इलाकों में कुषाण कालीन अवशेष मिले हैं.थेह पोलड में
हिंद युनानीं और कुशान काल के सिक्के पाए गए हैं. हर्षवर्धन के समय में इस इलाके ने भरपूर प्रगति
की .चीनी यात्री ह्वेनसांग इस शहर की गलियों-कूचों से गुजरा. पठान, अफगान, सैयद इस
सरज़मीं पे बसे. मंगोलों को यहाँ बसाया गया.”पट्टी अफगान” जैसे गाँवों के नाम आपको सुनने को मिलेंगे. इन सभी की
संस्कृतियों , बोलियों, खान- पान, पहनावे,स्थापत्य और अपने बिछुडे मुल्क की स्मृतियों को ज़िंदा रखने की ख्वाहिश ने कैथल की संस्कृति में ढेरों रंग भरे.सैयदों के समय में कैथल ज्ञान और कला
का महत्वपूर्ण केन्द्र था .यहाँ तक की प्रसिद्द मध्यकालीन इतिहासकार जलालुद्दीन ने
सैयद्कालीन कैथल के विद्वानों की तारीफ़ की
है. यहाँ से होकर सुनाम, हांसी, हिसार, सिरसा जैसे सल्तनतकालीन बड़े शहरों को
रास्ते जाते थे जिसके कारण मुसाफिरों ,व्यापारियों, भिक्षुओं और धडधडाती फौजों का
यहाँ आना और गुजारना होता होगा. हिन्दुस्तान की पहली शासिका रजिया बेगम मध्ययुगीन
पुरुषवादी मुल्ला मौलवियों और अपने पुरुष सिपहसालारों से नहीं जीत सकी और कैथल के
जंगलों में मारी गई .....नहीं - नहीं ....पितृ सत्ता की बलि चढ गयी. मुग़ल काल में
ये शहर एक बड़ी मंडी रहा .शहर की पुरानी गालियाँ उतार -चढ़ाव वाली हैं और कई हिस्से
ऊंचाई पर बसे हैं जो इस शहर के बार- बार बसने या पुराने होने का साक्ष्य देते है. इस
शहर ने गुर्जर प्रतिहार, चंदेल, खिलजी
,तुगलक, बलूच, अफगान, मुगलों और सिखों का शासन देखा. १७१९-१७४८ तक मुग़ल
बादशाह मुहम्मद शाह के समय यह एक परगना
था.१७३३ में यहाँ की ज़मींदारी एक बलूची उमर-उद्दीन खान के हाथ में आ गयी. १७५६ में
बलूच आधिपत्य समाप्त हुआ जब इनायत खान अफगान के हाथ में ज़मींदारी आ गयी .आखिर में
१७६७ में भाई देसु सिंह ने कैथल पर कब्ज़ा कर लिया और सिख शासन की नींव डाली. सिख
गुरु गुरु हर राय ने देसु सिंह को भगत की उपाधि दी थी. तबसे कैथल के शासक “भाई कहलाये.देसु सिंह ने कैथल का भव्य किला, कैथल
के आसपास कई छोटे किले, सरस्वती नदी पर कई कच्चे बाँध बनवाए और मांगना से कैथल तक
नहरों से पानी लाने का इंतजाम किया.भाई उड़ाई सिंह ने विद्वानों को संरक्षण दिया.
उसमे के महान कवी भाई संतोख सिंह उनके दरबार में थे जिन्होंने नानक प्रकाश , आतम
पुराण , गुरु प्रताप सूरज जैसी किताबें
लिखीं और वाल्मीकि रामायण का अनुवाद भी किया.
कैथल पर अल्लाउद्दीन खिलजी और नादिर शाह ने भी हुकूमत
की. भारतीय उपमहाद्वीप की अलग अलग जगहों से अलग अलग नस्लों के सुल्तानो के काफिलों
में साथ आये आम लोग कैथल में भी बसे.कुछ ने नए गाँव बसाये तो कुछ यहाँ की रिआया के
साथ घुलमिल गए. आज भी मेरे गाँवों के नाम अपनी कहानी बयान करते हैं....पट्टीअफगान,
अहमदपुर, रसूलपुर, खानपुर, फरिआबाद, फिरोजपुर, फतेहपुर, कमालपुर, खेडी सिकंदर, कुतुबपुर, खेडी शेरखान,
कोले खान, लंडर कीमा, लंडर पीरजादा, पट्टी
डोगरा, सलीमपुर महदूद, वजीरनगर तो दूसरी
तरफ रावण हेरा, खरक पांडवा, रमाना रमानी और तितरम जैसे गाँव भी हैं जो हमारी मिथकीय विरासत को
समेटे हुए हैं. यहाँ की बसावट में भी एक सांझापन रहा है. अमूमन हर गाँव में इंडो –इस्लामिक शैली में
बनीं इमारतों के खँडहर मिल जायेंगे तो कलायत में प्रतिहारों का बनवाया भव्य मंदिर.
१८४३ में इस शहर को अंग्रेजों ने हड़प लिया. शासक उदय सिंह
की माँ साहब कौर और उनकी विधवा सूरज कौर ने वफादार सिपाही टेक सिंह ने अंग्रेजों को
ज़बरदस्त टक्कर दी लेकिन पटियाला रियासत के राजा द्वारा धोखा दिए जाने की वजह से
हार गए .टेक सिंह को काला पानी की सजा हुयी. किसानों की भयंकर लूट, दस्तकारी और
व्यापार की तबाही , अकाल, और सांझी विरासत और संस्कृति पर अंग्रेजों के हमले को यहाँ की रिआया ने महसूस
किया और फिर अम्बाला से शुरू हुए ग़दर की ज्वाला से कैथल और उसके गांव भी धधक
उठे....पाई गाँव में विद्रोहयों को तोपों के मुह पर बाँध कर उड़ा दिया गया...तो
फतेहपुर पूंडरी की कमान संभाली गिरधर अहलूवालिया ने जिन्होंने कैथल के सब – डिवीजनल अफसर को
खत्म कर दिया .वे अंग्रेजों के द्वारा छलनी कर दिए गए. पर कैथल की रिआया ने हार
नहीं मानी. १८८३ -१९०१ के बीच उसने पिअरसन
और कैप्टन मैक्नोल की फौजों को कड़ी टक्कर दी.
कैथल की जनता ने आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ कर हिस्सेदारी की.
पिकेटिंग , हड़ताल ,स्वदेशी, बहिष्कार ,प्रभातफेरी, असहयोग, खिलाफत ,नमक सत्याग्रह, भारत छोडो, सभी आन्दोलनों में जनता ने भरपूर हिस्सेदारी
की.तिलक के स्वराज फंड में कैथल से ३५०० रूपये इकट्ठा हुए.१९३१ में मौलाना मुहम्मद
दीन की अध्यक्षता में कैथल में कांग्रेस का एक बड़ा जलसा हुआ.लोगों को जलसे में आने
से रोकने के लिए भारी धर-पकड़ की गई.२६ जनवरी१९३१ को जगह -जगह तिरंगे फहराए गए.
आजादी का जश्न भी यहाँ जम के मनाया गया....तो तकसीम में उजड़े “रिफ्यूजियों”को जगह भी दी गई .
ये तो थी कैथल की एक छोटी सी झांकी.हज़ारों साल पुराने एक
शहर की कहानी क्या महज़ चंद सफों /लफ़्ज़ों में बयान हो सकती है?हम तो इस छोटी सी कहानी
के बहाने से ये बताना चाह रहे थे कि कोई
भी मुल्क, सूबा, शहर या गाँव किसी एक कौम या मज़हब का नही होता...इतिहास ऐसा होने ही नहीं देता .क्योंकि इतिहास ने खुद में समेट
रखें हैं बहुतेरे रंग. इसके हर पन्ने पे
अलग अलग कौमों, मजहबों, बोलियों, तौर तरीकों ,रवायतों के घुलने - मिलने की कहानी
है .कैथल की ज़मीन ने, कैथल के बाशिंदों ने,
कैथल के इतिहास ने, सदियों से सभी को जगह दी है.यहाँ नीम साहब गुरद्वारा है जहां
सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर आये. सभी मज़हब के के लोग यहाँ आते हैं.गुरुद्वारा
मंजी साहब की कहानी भी गुरू तेग बहादुर से जुडी है. कहते है गुरु एक बढई और एक बनिया के घर गए और उन्हें
आशीर्वाद दिया.बढई ने यह जगह गुरद्वारे के लिए दे दी. आजादी के पहले शीतला मंदिर में मुस्लिम जोगी
पूजा करते थे. कैथल हमेशा से सूफी संतों का शहर रहा...शेख कमाल बाबा कादरी, शेख
शहाबुद्दीन शाह विलायत,शेख तैयब, समध सितलपुरी जैसे सूफी संतों ने गंगा जामुनी
संस्कृति के बनने में मदद की. शहर की सबसे अज़ीम जगह सूफी संत हजरत शाह बाबा कमाल
कादरी और उनके पोते सिकंदर कादरी की मज़ार है जो यहाँ ९२८ हिजरा {१६ वीं सदी }में
बग़दाद से कादरी सिलसिले की शिक्षा देने आये थे.तब कैथल धर्म और दर्शन का केन्द्र
बना. आज यहाँ सभी धर्म के लोग जियारत के लिए आते हैं. पादशाही गुरुदारा भी अपने
में एक कहानी समेटे हुए है. टोपिया गुरुद्वारा में रामायण का पाठ होता है. कैथल की
संस्कृति को एक अलग रंग दिया है तकसीम के समय आये “रिफ्यूजियों” ने. जाट सरदार और मुल्तान, लाहौर, झंग जैसी जगहों से उजड
कर आये लोगों की पहली पीढ़ी अभी ज़िंदा है. वक्त की लकीरें चेहरे पर बयान करती किसी बुज़ुर्ग को कुरेदिये, उसकी आँखे
टंग जाएंगी कहीं दूर, बहुत दूर, बचपन में
गुज़ारे गए किसी मकान पे,किन्ही गलियों और बाज़ारों पे , किसी स्कूल पे या किसी लाला
की दूकान पे.और बात करिये.... अब उनकी आँखें नम हो जाएंगी और एक अजीब किस्म की
कसमसाहट , एक गहरी छटपटाहट उनपे छ जायेगी. बंटवारे की पीड़ा,अपनी पुरखों की ज़मीन से
उजडने, अपनों को खो देने, अपनों मारे जाने
की पीड़ा सीने में जज़्ब किये उसने इस शहर में अपनी मेहनत से जगह बनाई है. उसने शहर
को एक बेलौस चमक दी है.उनकी वजह से शहर की हवाओं में एक अजीब सी खुशी और उल्लास
तारी रहती है.
आज मै लगातार फ़ैल रहा हूँ .आस पास के गाँवों के लोग नौकरी,
पढ़ाई,और छोटे मोटे काम की तलाश में यहाँ आकर बस रहे हैं. देश की बिगड़ती राजनीती और
धार्मिक उन्माद का असर मैंने भी महसूस किया हैं. मेरा दिल जार – जार रोता है.
जिसकी फिजाओं में बुल्ले शाह , बाबा फरीद, नानक के बोल और शब्द गूंजते रहे हों, जिसकी तहजीब को बाबा कमाल शाह, शेख
तैयब, गुरु तेग बहादुर ने सींचा हो, जिसने हडप्पा के समय से सांझी विरासत का जश्न
मनाया हो, जहां दुनिया का सबसे बेहतरीन महाकाव्य रचा गया हो . उसपर आज आंच आने लगी
है. जाति, मज़हब के मसलों पर तलवारें खिंचने लगी हैं..मेरे ऊपर खून के छीटें पड़े हैं. इज्ज़त के नाम पे औरतों और लड़कियों के साथ होने वाली घटनाओं से मेरा सिर शर्म से
झुक जाता है.
नयी पीढ़ी
सुंदर अतीत को भूलती जा रही है. उसे कौन
याद दिलाएगा?कौन परिचित कराएगा? अब वक्त आ गया है जब हमे मिल कर सोचना चाहिये.इस
शहर को रंग बिरंगे फूलों का बागीचा बने रहने देना चाहिए.....ताकि सांझी विरासत का
जश्न चलता रहे ...मनता रहे .
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